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________________ -उत्तराध्ययन सूत्र/६५६८ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण हुँति चरणगुणा। अगुणिस्स णत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं॥ २८/३०॥ सम्यग्दर्शन के अभाव में समीचीन ज्ञान प्राप्त नहीं होता, ज्ञान के अभाव में चारित्र के गुण नहीं होते, गुणों के अभाव में मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के अभाव में निर्वाण सम्पूर्ण प्रशान्त दशा प्राप्त नहीं होती। नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाई, तवेण परिसुज्झई।। २८/३५॥ ज्ञान भावों का सम्यग् बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती है, चारित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से आत्मा निर्मल होती है। सामाइएणं सावजजोगविरडं जणयड॥ २९॥८॥ सामायिक की साधना से पापकारी प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है। खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ॥ २९/१७॥ क्षमापणा से आत्मा में प्रसन्नता की अनुभूति होती है। __सज्झाएणं नाणावरणिजं कम्मं खवेइ॥ २९/१८॥ स्वाध्याय से ज्ञानावरण (ज्ञान को आच्छादन करने वाले) कर्म का क्षय होता है। __वेयावच्चेणं तित्थयरं नामगोत्तं कम्मं निबन्धइ॥ २९/४३॥ वैयावृत्य से आत्मा तीर्थंकर होने जैसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म का उपार्जन करता है। वीयरागयाए णं नेहाणुबन्धणाणि तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिंदइ ।।२९/४५॥ वीतराग भाव की साधना से स्नेह (राग) के बन्धन और तृष्णा के बन्धन कट जाते हैं। अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ॥ २९/४८॥ दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है। करणसच्चे वट्टमाणे जीवे। जहावाई तहाकारी यावि भवइ॥ २९/५१॥ करणसत्य-व्यवहार में स्पष्ट तथा सच्चा रहने वाला आत्मा 'जैसी कथनी वैसी करनी' का आदर्श प्राप्त करता है। वयगुत्तयाए णं णिव्विकारत्तं जणयइ॥ २९/५४॥ वचनगुप्ति से निर्विकार स्थिति प्राप्त होती है। जहा सूई ससुत्ता, पडियावि न विणस्सइ। तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ॥ २९/५९॥ धागे में पिरोई हुई सूई गिर जाने पर भी गुमती नहीं, उसी प्रकार सूत्र-आगमज्ञान से युक्त आत्मा संसार में भटकता नहीं, विनाश को प्राप्त नहीं होता। भकोडी-संचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ॥ ३०/६॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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