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परिशिष्ट-१ : कतिपय सूक्तियाँ/६५५ छिद्रों वाली नौका पार नहीं पहुंच सकती, किन्तु जिस नौका में छिद्र नहीं है वही पार पहुंच सकती है।
__सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरन्ति महेसिणो॥ २३/७३॥ यह शरीर नौका है, जीव-आत्मा उसका नाविक है और संसार समुद्र है। महर्षि इस देह रूप नौका के द्वारा संसार-सागर को तैर जाते हैं।
जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा।
एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं बूम माहणं॥ २५/२७॥ ब्राह्मण वही है जो संसार में रह कर भी काम-भोगों से निर्लिप्त रहता है। जैसे कमल जल में रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता।
न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥ २५/३१॥ सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। जंगल में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता और वल्कल वस्त्र धारण करने से कोई तापस नहीं होता।
समयाए समणो होई,बंभचेरेण बंभणो।
नाणेण य मुणी होई, तवेणं होइ तावसो॥ २५/३२॥ समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस पद प्राप्त होता है।
कम्मुण बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खित्तिओ।
वइसो कम्मुण होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा॥ २५/३३॥ कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय । कर्म से ही वैश्य होता है और कर्म से ही शद्र होता है।
उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई॥ २५/४१॥ जो भोगी है, वह कर्मों से लिप्त होता है और जो अभोगी-भोगासक्त नहीं है वह कर्मों से लिप्त नहीं होता। भोगासक्त संसार में परिभ्रमण करता है। भोगों में अनासक्त ही संसार से मुक्त होता है।
विरत्ता हु न लग्गति,जहा से सुक्कगोलए॥ २५/४३॥ मिट्टी के सूखे गोले के समान साधक कहीं भी चिपकता नहीं है अर्थात् आसक्त नहीं होता।
नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा।
एस मग्गो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं॥ २८/२॥ वस्तु स्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाले जिन भगवान ने ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बताया है।
नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं॥ २८/२९॥ सम्यग्दर्शन के अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं हो सकता।