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उन्तराध्ययन सूत्र/६५४. अपनी शक्ति को ठीक तरह पहचान कर यथावसर यथोचित कर्त्तव्य का पालन करते हुए राष्ट्र में विचरण करिए।
सीहो व सद्देण न सन्तसेज्जा॥ २१/१४॥ सिंह के समान निर्भीक रहिए, शब्दों से न डरिए।
पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा॥ २१/१५॥ प्रिय हो या अप्रिय, सब को समभाव से सहन करना चाहिए।
न सव्व सव्वतथऽभिरोयएज्जा॥ २१/१५॥ हर कहीं, हर किसी वस्तु में मन को न लगा बैठिए
अणेगछन्दा इह माणवेहिं॥ २१/१६॥ इस संसार में मनुष्यों के विचार भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं।
___ अणुन्नए नावणए महेसी।
न यावि पूयं गरिहं च संजए॥ २१/२०॥ जो पूजा-प्रशंसा सुनकर कभी अहंकार नहीं करता और निन्दा सुनकर स्वयं को हीन नहीं मानता, वही वस्तुतः महर्षि है।
नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेणं तवेण य। __खंतीए मुत्तीए य, वड्डमाणो भवाहि य॥ २२/२६॥ ज्ञान दर्शन चारित्र तप क्षमा और निर्लोभता की दिशा में निरन्तर वर्द्धमान–बढ़ते रहिए।
पन्ना समिक्खए धम्मं ॥ २३/२५॥ साधक की स्वयं की प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा कर सकती है।
एगप्पा अजिए सत्तू॥ २३/३८॥ अपनी ही अविजित असंयत आत्मा अपना शत्रु है।
भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया॥ २३/४८॥ संसार की तृष्णा भयंकर फल देने वाली विष-बेल है।
कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय सील तवो जलं ॥ २३/५३॥ कषाय को अग्नि कहा गया है। उसको बुझाने के लिए ज्ञान, शील, सदाचार और तप जल है।
मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई।
तं सम्मं तु निगिण्हामि धम्मसिक्खाइ कन्थगं॥ २३/५८॥ यह मन बड़ा ही साहसिक, भयंकर एवं दुष्ट घोड़ा है, जो बड़ी तेजी के साथ इधर-उधर दौड़ता रहता है। मैं धर्मशिक्षारूप लगाम से उस घोड़े को भली-भांति वश में किए रहता हूँ।
जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ २३/६८॥ जरा और मरण के महाप्रवाह में डूबते प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा-आधार है, गति है और उत्तम शरण है।
जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी। जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणी ॥ २३/७१॥