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________________ परिशिष्ट-१ : कतिपय सूक्तियाँ/६५३ - बाहाहिं सागरो, तरियव्वो गुणोदही॥१९/३७॥ सद्गुणों की साधना का कार्य भुजाओं से सागर तैरने जैसा है। असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो॥१९/३८॥ तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है। इह लोए निष्पिवासस्स, तत्थि किंचि वि दुक्करं॥ १९/४५॥ जो व्यक्ति संसार की पिपासा-तृष्णा से रहित है, उसे लिए कुछ भी कठिन नहीं है। ममत्तं छिन्दए ताए, महानागोव्व कंचुयं ॥१९/८७॥ आत्मसाधक ममत्व के बन्धन को तोड़ फेंके-जैसे कि सर्प शरीर पर आई हुई केंचुली को उतार फेंकता है। . लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु, समो माणावमाणओ॥१९/९१॥ जो लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुतः मुनि है। अप्पणा अनाहो संतो, कहं नाहो भविस्ससि?॥ २०/१२॥ अरे तू स्वयं अनाथ है, दूसरे का नाथ कैसे बन सकता है? ___अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वण॥ २०/३६ ॥ आत्मा स्वयं ही वैतरणी नदी और कटशाल्मली वृक्ष के समान दःखप्रद है और आत्मा ही कामधेनु और नन्दनवन के समान सुखदायी भी है। अप्या कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ॥ २०/३७॥ आत्मा ही सुख:दुख का कर्ता और भोक्ता है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र के तुल्य है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है। राढामणी वेरुलियप्पगासे। अमहग्घए होइ हु जाणएसु॥२०/४२॥ वैडूर्य रत्न के समान चमकने वाले काँच के टुकड़े का जानकार के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं रहता। नंत अरी कंठछित्ता करेई। जं से करे अप्पणिया दुरप्पा॥ २०/४८॥ गर्दन काटने वाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुंचा सकता जितनी दुराचार में प्रवृत्त अपनी स्वयं की आत्मा पहुंचा सकती है। कालेण कालं विहरेज रठे। बलाबलं जाणिय अप्पणो य ।।२०/१४॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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