SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 751
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन सूत्र / ६५२ सव्वं जग जइ तुब्भं, सव्वं वा वि धणं भवे । सव्वपि ते अपज्जत्तं, नेव ताणय तं तव ॥ १४/३९ ॥ यदि सम्पूर्ण जगत् और जगत् का समस्त धन-वैभव भी तुम्हें दे दिया जाय, तब भी वह तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं होगा। मगर वह तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ नहीं होगा । एक्को हु धम्मो नरदेव! ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किंचि ॥ १४/४० ॥ राजन् ! एक मात्र धर्म ही रक्षा करने वाला है, उसके सिवाय विश्व में मनुष्य का कोई भी त्राता नहीं है। देव-दाणव- गंधव्वा, जक्ख- रक्खस- किन्नरा । बंभयारिं नमसिंति, दुक्करं जे करन्ति तं ॥ १६ / १६ ॥ देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक को नमस्कार करते हैं, क्योंकि वह एक बहुत दुष्कर कार्य करता है। भुच्चा पिच्चा सुहं सुवई, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ १७/३ ॥ जो श्रमण खा-पीकर मस्त होकर सो जाता है, धर्माराधना नहीं करता, वह पापश्रमण कहलाता है । असंविभागी अचियत्ते पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ १७/११ ॥ जो असंविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियों में बांटता नहीं है) और परस्पर प्रेमभाव नहीं रखता है वह पापश्रमण कहलाता है। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जति ? ॥१८ / ११ ॥ जीवन अनित्य है, क्षणभंगुर है फिर क्यों हिंसा में आसक्त होता है? जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपाय चंचलं ॥ १८/१३ ॥ जीवन और रूप-सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल हैं। किरिअं च रोयए धीरो ॥ १८ / ३३ ॥ धीर पुरुष सदा कर्तव्य में ही रुचि रखते हैं। जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुणो ॥ १९/१६॥ संसार में जन्म का दुःख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुःख है, चारों ओर जहां प्राणी निरन्तर कष्ट पाते रहते हैं । भसियव्वं हियं सच्चं ॥ १९ / २७ ॥ सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए। दुःख ही दुःख है; दन्तसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं ॥ १९/२८ ॥ अचौर्य व्रत का साधक दांत साफ करने के लिए एक तिनका भी स्वामी की अनुमति के विना ग्रहण नहीं करता ।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy