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________________ परिशिष्ट - १ : कतिपय सूक्तियाँ / ६५९ । कर्म कर्त्ता का अनुसरण करते हैं—उसका पीछा नहीं छोड़ते । वण्णं जरा हरइ परस्स रायं । । १३ / २६ ॥ राजन् ! जरा मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है । उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥ १३/९३॥ जैसे वृक्ष के फल क्षीण हो जाने पर पक्षी उसे छोड़कर चले जाते हैं, वैसे ही पुरुष का पुण्य क्षीण होने पर भोगसाधन उसे छोड़ देते हैं, उसके हाथ से निकल जाते हैं। वेया अहीया न हवन्ति ताणं ।। १४/१२ ॥ अध्ययन कर लेने मात्र से वेद [शास्त्र] रक्षा नहीं कर सकते । धणेण किं धम्मधुराहिगारे ॥ १४ ॥१७॥ धर्म को धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है? [ वहाँ तो सदाचार ही अपेक्षित है ] नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा अमुत्तभावा विय होइ निच्वं ॥ १४/१९ ॥ आत्मा अमूर्त तत्त्व होने के कारण इन्द्रियग्राह्य नहीं है और जो भाव अमूर्त होते हैं वे अविनाशी होते हैं । अज्झत्थ हेउं निययस्स बन्धो ॥ १४/१९ ॥ अन्दर के विकार ही वस्तुतः बन्धन के हेतु हैं । मच्चुणाऽब्भाहओ लोगो, जराए परिवारिओ ॥ १४/२३॥ जरा से घिरा हुआ यह संसार मुत्यु से पीड़ित हो रहा है। जा वच्च रयणी, न सा पडिनियत्तई धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जान्ति राइओ ॥ १४/२५ ।। जो रात्रियाँ बीत जाती हैं, वे पुनः लौट कर नहीं आतीं, किन्तु जो धर्म का आचरण करता रहता है, उसकी रात्रियाँ सफल हो जाती हैं। जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वऽत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ॥ १४/२७ ॥ मृत्यु के साथ जिसकी मित्रता हो, जो भाग कर मृत्यु से बच सकता हो अथवा जो यह जानता हो कि मैं कभी मरूंगा ही नहीं, वही कल पर भरोसा कर सकता है। सद्धा खमं णो विणइत्तु रागं ॥ १४/२८ ॥ धर्म- श्रद्धा हमें राग से- आसक्ति से मुक्त कर सकती है। जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी ॥ १४/३३ ॥ बूढा हंस प्रतिस्रोत (जलप्रवाह के सम्मुख ) में तैरने से डूब जाता है। अर्थात् असमर्थ व्यक्ति समर्थ का प्रतिरोध नहीं कर सकता।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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