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उत्तराध्ययन सूत्र / ६५०
परिजूर ते सरीरयं, केसा पण्डुरया हवन्ति ते ।
से सव्वबले या हायई, समयं गोयम! मा पमायए । १० / २६ ॥
शरीर जीर्ण होता जा रहा है, केश पक कर सफेद हो गये हैं। शरीर का समस्त बल क्षीण होता जा रहा है, अतएव, गौतम! क्षर भर भी प्रमाद न कर ।
तिणो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ ? अभितर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए । १० / ३४ ॥
तू महासुमद्र को पार कर चुका है, अब किनारे आकर क्यों रुक गया? पार पहुँचने के लिए शीघ्रता कर । हे गौतम! क्षण भर का भी प्रमाद उचित नहीं है।
अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण वा ॥ ११/३ ॥
अहंकार, क्रोध, प्रमाद [ विषयासक्ति ] रोग और आलस्य, इन पाँच कारणों से व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता ।
न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई ।
अप्पियस्सावि मित्तसय, रहे कल्लाण भासई ॥ १२/१२ ॥
सुशिक्षित व्यक्ति न किसी पर दोषारोपण करता है और न कभी परिचितों पर कुपित होता है। और तो क्या, मित्र से मतभेद होने पर भी परोक्ष में उसकी भलाई की ही बात करता है । पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लधुमरिहई । ११ / १४ ॥ प्रियंकर और प्रियवादी व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने में सफल होता है।
महप्पसाया इसिणो हवन्ति, न हु मुणी कोवपरा हवन्ति ॥ १२/३१ ॥ ऋषि-मुनि सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं, कभी किसी पर क्रोध नहीं करते ।
सक्खं खुदीसइ, तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई ॥ १२ / ३७ ॥ तप-त्याग की विशेषता तो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है किन्तु जाति की कोई विशेषता नजर नहीं आती है।
धम्मे हर बम्भे सन्तितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे ।
सिणाओ विमल विसुद्धो, सुसीइओ पहामि दोसं ॥ १२ / ४६ ॥
धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ है, आत्मा की प्रसन्नलेश्या मेरा निर्मल घाट है, जहाँ स्नान कर आत्मा कर्ममल से मुक्त हो जाता है।
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सव्वं सुचिणं नराणं ॥ १३/१० ॥ मनुष्य के सभी सुचरित. [ सत्कर्म] सफल होते हैं। सव्वे कामा दुहावहा ॥ १३/१६॥ सभी काम-भोग अन्ततः दुखावह [दु:खद ] ही होते हैं । कत्तारमेव अणुजाई कम्मं ॥ १३ / २३ ॥