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________________ परिशिष्ट-१ कतिपय सूक्तियाँ / ६४९ । जो सहस्सं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ ९ / ३४ ॥ : भयंकर युद्ध में लाखों दुर्दान्त शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपने आपको जीत लेना ही बड़ी विजय है। सव्वं अप्पे जिए जियं ॥ ९ / ३६ ॥ एक अपने [ विकारों] को जीत लेने पर सभी को जीत लिया जाता है। इच्छा हु आगाससमा अतिया । ९४८ ॥ इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त - अपार हैं। कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दुग्गई ।।९ १५३ ।। कामभोगों की लालसा - ही लालसा में प्राणी एक दिन उन्हें भोगे बिना ही दुर्गति में चले जाते हैं । अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गइपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ॥ ९/५४॥ क्रोध से आत्मा नीचे गिरता है। मान से अधम गति प्राप्त करता है। माया से सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। लोभ से इस लोक और परलोक दोनों में ही भय - कष्ट होता है। के जिस प्रकार पेड़ वृक्ष का जीवन भी आयु के भी प्रमाद न करो । दुमपत्तए पण्डुयए जहा, निवडइ राइगणाण अक्धए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए । १० / १ ॥ पीले पत्ते समय आने पर भूमि पर गिर पड़ते हैं; उसी प्रकार मनुष्य समाप्त होने पर क्षीण हो जाता है। अतएव, गौतम ! क्षण भर के लिए कुसग्गे जह ओसबिन्दुए, थोवं चिट्ठड़ लम्बमाणए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए ।। १० / २ ।। जैसे कुशा [घास] की नोक पर लटकी हुई ओस की बून्द थोड़े समय तक ही टिक पाती है, ठीक ऐसा ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभंगुर है अतएव हे गौतम! क्षण भर के लिए भी प्रमाद न करो । विहुणाहि रयं पुरे कडं । १० / ३ ॥ पूर्वसंचित कर्म रूपी रज को झटक दो। दुल्लहे खलु माणुसे भवे । १० / ४ ।। मनुष्यजन्म निश्चय ही बड़ा दुर्लभ है।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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