________________
छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
६३९ पारणा के दिन आयाम (अर्थात्-आचाम्ल—आयंबिल करे)। उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महीनों तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चोला आदि) तप न करे।
२५४. तओ संवच्छरद्धं तु विगिटुं तु तवं चरे।
परिमियं चेव आयामं तंमि संवच्छरे करे॥ [२५४] तदनन्तर छह महीने तक विकृष्ट तप (तेला, चोला आदि उत्कट तप) करे। इस पूरे वर्ष में परिमित (पारणा के दिन) आचाम्ल करे।
२५५. कोडीसहियमायामं कटु संवच्छरे मुणी।
___मासद्धमासिएणं तु आहारेण तवं चरे॥ [२५५] बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक कोटि-सहित अर्थात्- निरन्तर आचाम्ल, करके, फिर वह मुनि पक्ष या एक मास के आहार के तप-अनशन करे।
विवेचन–संलेखना : स्वरूप- द्रव्य से शरीर को (तपस्या द्वारा) और भाव से कषायों को कृश (पतले) करना 'संलेखना' है।
___ संलेखना : धारण कब और क्यों? - जब शरीर अत्यन्त अशक्त, दुर्बल और रुग्ण हो गया हो, धर्मपालन करना दूभर हो गया हो, या ऐसा आभास हो गया हो कि अब शरीर दीर्घकाल तक नहीं टिकेगा, तब संलेखना करना चाहिए। प्रव्रज्या ग्रहण करते ही या शरीर सशक्त एवं धर्मपालन में सक्षम हो तो संलेखना ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसी अभिप्राय से शास्त्रकार ने गाथा २५० में संकेत किया है
'तओ बहूणि वासाणि सामण्णमणुपालिया'। किन्तु शरीर, अशक्त, अत्यन्त दुर्बल एवं धर्मपालन करने में असमर्थ होने पर भी संलेखना-ग्रहण करने के प्रति उपेक्षा या उदासीनता रखना उचित नहीं है। एक आचार्य ने कहा है -"मैंने चिरकाल तक मुनिपर्याय का पालन किया है तथा मैं दीक्षित शिष्यों को वाचना भी दे चुका हूँ, मेरी शिष्यसम्पदा भी यथायोग्य बढ़ चुकी है। अतः अब मेरा कर्तव्य है कि मैं अन्तिम आराधना करके अपना भी श्रेय (कल्याण)करूं।" अर्थात् साधु को पिछली अवस्था में संघ, शिष्य-शिष्या, उपकरण आदि के प्रति मोह-ममत्व का परित्याग करके संलेखना अंगीकार करना चाहिए।
संलेखना की विधि-संलेखना उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन प्रकार की है। उत्कृष्ट संलेखना १२ वर्ष की होती है। जिसके तीन विभाग करने चाहिए। प्रत्येक विभाग में चार-चार वर्ष आते हैं। प्रथम चार वर्षों में दूध, दही, घी, मीठा और तेल आदि विग्गइयों (विकृतियों) का त्याग करे, दूसरे चार वर्षों में उपवास, बेला, तेला आदि तप करे। पारणे के दिन सभी कल्पनीय वस्तुएँ ले सकता है। तृतीय वर्षचतुष्क में दो वर्ष तक एकान्तर तप करे, पारणा में आयम्बिल (आचाम्ल) करे। तत्पश्चात् यानी ११ वें वर्ष में वह ६ महीने तक तेला, चौला. पंचौला आदि कठोर (उत्कट) तप न करे। फिर दूसरे ५ महीने में वह नियम से तेला, चौला आदि उत्कट तप करे। इस ग्यारहवें वर्ष में वह परिमित-थोड़े ही आयम्बिल (आचाम्ल) १. उत्तरा. प्रिदर्शिनीटीका , भा. ४, पृ. ९३९ २. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ४, पृ. ९३७ (ख) "परिपालिओ यदीहो, परियाओ, वायणा तहा दिण्णा।
णिफ्फाइया य सीसा, सेयं मे अप्पणो काउं॥"