________________
६३८
उत्तराध्ययनसूत्र [२४८] इस प्रकार संसारस्थ और सिद्ध जीवों का व्याख्यान किया गया। रूपी और अरूपी के भेद से, दो प्रकार के अजीव का व्याख्यान भी हो गया।
२४९. इइ जीवमजीवे यसोच्चा सद्दहिऊण य।
सव्वनयाण अणुमए रमेज्जा संजमे मुणी॥ [२४९] इस प्रकार जीव और अजीव के व्याख्यान को सुन कर और उस पर श्रद्धा करके (ज्ञान एवं क्रिया-आदि) सभी नयों से अनुमत संयम में मुनि रमण करे।
विवेचन-जीवाजीवविभक्ति : श्रवण, श्रद्धा एवं आचरण में परिणति— प्रस्तुत गाथा २४९ में बताया गया है कि जीव और अजीव के विभाग को सम्यग् प्रकार से सुने, तत्पश्चात् उस पर श्रद्धा करे कि --'भगवान् ने जैसा कहा है, वह सब सत्य है—यर्थार्थ है।' इस प्रकार से उसे श्रद्धा का विषय बनाए। श्रद्धा सम्यक् होने से जीवाजीव का ज्ञान भी सम्यक् होगा। किन्तु इतने मात्र से ही साधक अपने को कृतार्थ न मान ले, इसलिए कहा गया है —'रमेज संजमे मुणी'। इसका फलितार्थ यह है कि मुनि जीवाजीव पर सम्यक् श्रद्धा करे , सम्यक् ज्ञान प्राप्त करे और तत्पश्चात् ज्ञाननय और क्रियानय के अन्तर्गत रहते हुए, नैगमादि सर्वनयसम्मत संयम–अर्थात् —चारित्र में रमण करे, उक्त ज्ञान और श्रद्धा को क्रियारूप में परिणित करे। अन्तिम आराधना : संलेखना का विधि-विधान
__ २५०. तओ बहूणि वासाणि सामण्णमणुपालिया।
इमेण कमजोगेण अप्पाणं संलिहे मुणी॥ [२५०] तदनन्तर अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस (आगे बतलाए गए) क्रम से आत्मा की संलेखना (विकारों से क्षीणता) करे।
२५१. बारसेव उ वासाइं संलेहुक्कोसिया भवे।
संवच्छरं मज्झिमिया छम्मासा य जहनिया॥ [२५१] उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की होती है। मध्यम एक वर्ष की और जघन्य (कम से कम) छह महीने की होती है।
२५२. पढमे वासचउक्कम्मि विगईनिजहणं करे।
बिइए वासचउक्कम्मि विचित्तं तु तवं चरे॥ ___ [२५२] प्रथम चार वर्षों में दूध आदि विकृतियों (विग्गइयों-विकृतिकारक वस्तुओं) का निर्वृहण (त्याग) करे। दूसरे चार वर्षों तक विविध प्रकार का तप करे।
२५३. एगन्तरमायाम कटु संवच्छरे दुवे।
तओ संवच्छरद्धं तु नाइविगिट्ठ तवं चरे॥ [२५३] तत्पश्चात् दो वर्षों तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास और एक दिन पारणा) करे। १. उत्तर. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. ९३६