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________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति ६३७ ज्योतिष्क—ये सभी तिर्यग्लोक को अपनी ज्योति से प्रकाशित करते हैं, इसलिए ज्योतिष्क देव कहलाते हैं। ये अढाई द्वीप में गतिशील हैं, अढाई द्वीप से बाहर स्थिर हैं। ये निरन्तर सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा क्रिया करते हैं। मेरुपर्वत के ११२१ योजन को छोड़ कर इनके विमान चारों दिशाओं में उसकी सतत प्रदक्षिणा करते रहते हैं। वैमानिकदेव-ये विमानों में ही निवास करते हैं, इसलिए वैमानिक या विमानवासी देव कहलाते हैं। जिन वैमानिक देवों में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि दस प्रकार के देवों का कल्प (अर्थात् मर्यादा या आचार-व्यवहार) हो, वे देव 'कल्पोपग' या 'कल्पोपपन्न' कहलाते हैं, इसके विपरीत जिन देवलोकों में इन्द्रादि की भेद-मर्यादा नहीं होती, वहाँ के देव'कल्पातीत' (अहमिन्द्र स्वामी-सेवकभावरहित) कहलाते हैं। सौधर्म से लेकर अच्युत देवलोक (कल्प) तक के देव 'कल्पोपपन्न' और इनसे ऊपर नौ ग्रैवेयक एवं पंच अनुत्तर विमानवासी देव 'कल्पातीत' कहलाते हैं। जिस-जिस के नाम के कल्प (देवलोक) में जो देव उत्पन्न होता है, वह उसी नाम से पुकारा जाता है। ग्रैवेयकदेव-लोक का संस्थान पुरुषाकार है, उसमें ग्रीवा (गर्दन) के स्थानापन्न नौ ग्रैवेयक देव कहलाते हैं। जिस प्रकार ग्रीवा में आभरणविशेष होता है, उसी प्रकार लोकरूप पुरुष के ये नौ ग्रैवेयआभरण स्वरूप हैं। इन विमानों में देव रहते हैं, वे ग्रैवेयक कहलाते हैं । ग्रैवेयकों में तीन-तीन त्रिक हैं - (१) अधस्तन-अधस्तन, (२) आधस्तन-मध्यम और (३) अधस्तन-उपरितन, (१) मध्यम-अधस्तन, (२) मध्यम-मध्यम और (३) मध्यम-उपरितन और (१) उपरितन-अधस्तन, (२) उपरितन-मध्यम और (३) उपरितन-उपरितन। अनुत्तरविमानवासी देव—ये देव सबसे उत्कृष्ट तथा सबसे ऊँचे एवं अन्तिम विमानों में रहते हैं, इसलिए अनुत्तरविमानवासी कहलाते हैं। ये विजय, वैजयन्त आदि नाम के पांच देव हैं। देवों की कायस्थिति—जिन देवों की जो जघन्य-उत्कृष्ट आयुस्थिति कही गई है, वही उनकी जघन्य-उत्कृष्ट कायस्थिति है। इसका अभिप्राय यह है कि देव मर कर अनन्तर (भव में) देव नहीं हो सकता, इस कारण देवों की जितनी आयुस्थिति है, उतनी ही उनकी कायस्थिति है। ___अन्तरकाल— देवपर्याय से च्यव कर पुनः देवपर्याय में देवरूप में उत्पन्न होने का उत्कृष्ट-अन्तर (व्यवधान) अनन्तकाल का बताया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई देव यदि देवशरीर का परित्याग कर अन्यान्य योनियों में जन्म लेता हुआ, फिर वहाँ से मर कर पनः देवयोनि में जन्म ले तो अधिक से से कम अन्तर एक अन्तर्मुहूत का पड़ेगा। उपसंहार २४८. संसारत्था य सिद्धा य इइ जीवा वियाहिया। रूविणो चेवऽरूवी य अजीवा दुविहा वि य॥ १. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा.२, पृ० ९११-९१२ (ख) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर , भा. २, पत्र ३६२ से ३६५ तक २. उत्तराध्ययन (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र ३६६ 3. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. ९३४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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