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________________ ६३६ उत्तराध्ययनसूत्र २४३. तेत्तीस सागरा उ उक्कोसेण ठिई भवे। चउसु पि विजयाईसुं जहन्नेणेक्कतीसई॥ [२४३] विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति तेतीस सागरोपम की और जघन्य इकतीस सागरोपम की है। २४४. अजहन्नमणुक्कोसा तेत्तीसं सागरोवमा। ___ महाविमाण सव्वढे ठिई एसा वियाहिया॥ _ [२४४] महाविमान सर्वार्थसिद्ध के देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट (न जघन्य और न उत्कृष्ट सब की एक जैसी) आयुस्थिति तेतीस सागरोपम की है। २४५. जा चेव उ आउठिई देवाणं तु वियाहिया। सा तेसिं कायठिई जहन्नुक्कोसिया भवे॥ ___ [२४५] समस्त देवों की जो पूर्वकथित आयुस्थिति है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति २४६. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए देवाणं हुज अन्तरं॥ [२४६] देवशरीर (स्वकाय) को छोड़ने पर पुनः देव-शरीर में उत्पन्न होने में जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का अन्तर होता है। २४७. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। ___ संठाणादेसओ वा वि विहाणाई सहस्सओ॥ [२४७] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इनके हजारों भेद होते हैं। विवेचन-भवनवासी आदि की व्याख्या-भवनवासी देव—जो प्रायः भवनों में रहते हैं, वे भवनवासी या भवनपति देव कहलाते हैं। केवल असुरकुमार विशेषतया आवासों में रहते हैं. इनके आवास नाना रत्नों की प्रभा वाले चंदेवों से युक्त होते हैं। उनके आवास इनके शरीर की अवगाहना के अनुसार ही लम्बे. चौडे तथा ऊंचे होते हैं। शेष नागकमार आदि नौ प्रकार के भवनपति देव भवनों में रहते हैं, आवासों में नहीं। ये भवन बाहर से गोल और अन्दर से चौकोर होते हैं। इनके नीचे का भाग कमलकर्णिका के आकार-सा होता है। इन्हें कुमार इसलिए कहा गया है कि ये कुमारों (बालकों) जैसे ही रूप एवं आकारप्रकार के होते हैं, देखने वालों को प्रिय लगते हैं, बड़े ही सुकुमार होते हैं, मृदु, मधु एवं ललित भाषा में बोलते हैं । कुमारों की-सी ही इनकी वेषभूषा होती है। वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर कुमारों सरीखी चेष्टा करते हैं। वाणव्यन्तद देव-ये अधिकतर वनों में, वृक्षों में, प्राकृतिक सौन्दर्य वाले स्थानों में या गुफा आदि के अन्तराल में रहते हैं, इस कारण वाणव्यन्तर कहलाते हैं । अणपन्नी, पणपन्नी आदि नाम के व्यन्तर देवों के जो अन्य आठ प्रकार कहे जाते हैं, उनका समावेश इन्हीं आठों में हो जाता है।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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