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छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
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पल्योपम की स्थिति वाले स्थलचर होते नहीं हैं, किन्तु वे देवलोक में जाते हैं। पूर्वकोटि आयु वाले अवश्य ही इतनी स्थिति वाले के रूप में पुन: उत्पन्न हो सकते हैं। वे भी ७-८ भव से अधिक नहीं । अतः पूर्वकोटि आयु पृथक्त्व भव ग्रहण करके अन्त में पल्योपम आयु पाने वाले स्थलचर जीवों की अपेक्षा से यह उत्कृष्ट कार्यस्थिति बताई गई है । १
जलचरों की उत्कृष्ट कार्यस्थिति — गाथा १७६ में पूर्वकोटि पृथक्त्व की, अर्थात् ८ पूर्वकोटि की कही गई है। उसका आशय यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च – जलचर अन्तररहित उत्कृष्टतः आठ भव करते हैं, उन आठों भवों का कुल आयुष्य मिला कर आठ पूर्वकोटि ही होता है। जलचर मर कर युगलिया नहीं होते, इसलिए युगलिया का भव नहीं आता । इस तरह उत्कृष्ट स्थिति के उक्त परिमाण में कोई विरोध नहीं आता । मनुष्य-निरूपण
१९५. मुणया दुविहभेया उ ते मे कित्तयओ सुण । मुच्छिमाय मणुयागब्भवक्कन्तिया तहा ॥
[१९५] मनुष्य दो प्रकार के हैं— सम्मूच्छिम और गर्भव्युत्क्रान्तिक ( गर्भोत्पन्न ) मनुष्य । १९६. गब्भवक्कन्तिया जे उ तिविहा ते वियाहिया ।
अकम्म कम्मभूया य अन्तरद्दीवया तहा ॥
[१९६] जो गर्भ से उत्पन्न मनुष्य हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं – अकर्मभूमिक, कर्मभूमिक और अन्तर्दीपक ।
१९७. पन्नरस - तीसइ - विहा भेया अट्ठवीसई । संखा उ कमसो तेसिं इइ एसा वियाहिया ॥
[१९७] कर्मभूमिक मनुष्यों के पन्द्रह, अकर्मभूमिक मनुष्यों के तीस और अन्तद्वीपक मनुष्यों के २८ भेद हैं।
१९८. संमुच्छिमाण एसेव भेओ होइ आहिओ । लोगस्स एगदेसम्म ते सव्वे वि वियाहिया ॥
[१९८] सम्मूर्च्छिम मनुष्यों के भेद भी इसी प्रकार के हैं, वे सब भी लोक के एक भाग में होते हैं, समग्र लोक में व्याप्त नहीं ।
१९९. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया विय।
ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय ॥
[१९९] (उक्त सभी प्रकार के मनुष्य) प्रवाह की अपेक्षा से अनादि - अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं 1
२००. पलिओवमा तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया । आउट्ठई मणुयाणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
१. उत्तरा . (साध्वी चन्दना), टिप्पण पृ. ४८०
२. उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. २, पत्र ३५७