SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 726
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति ६२७ १८३. संतई पप्पऽणाईया अपजवसिया विय। ठिई पडुच्च साईया सपजवसिया वि य॥ [१८३] प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त है। १८४. पलिओवमाउ तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। __आउट्ठिई थलयराणं अन्तोमुहुत्तं जहनिया॥ [१८४] उनकी आयुस्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। . १८५. पलिओवमाउ तिण्णि उ उक्कोसेण तु साहिया। पुव्वकोडीपुहत्तेणं अन्तोमुहुत्तं जहनिया॥ १८६. कायट्ठिई थलयराणं अन्तरं तेसिमं भवे। __कालमणन्तमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं॥ । [१८५-१८६] स्थलचर जीवों की कायस्थिति उत्कृष्टतः पूर्वकोटि-पृथक्त्व-अधिक तीन पल्योपम की और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की है। और उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। १८७. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो ॥ [१८७] वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा संस्थान की अपेक्षा से स्थलचरों के हजारों भेद हैं। खेचर त्रस १८८. चम्मे उ लोमपक्खी य तइया समुग्गपक्खिया। विययपक्खी य बोद्धव्वा पक्खिणो य चउव्विहा ॥ [१८८] खेचर (आकाशचारी पक्षी) चार प्रकार के हैं- चर्मपक्षी, रोमपक्षी, तीसरे समुद्गपक्षी और चौथे विततपक्षी । १८९. लोगेगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया। इत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसि चउव्विहं ॥ [१८६] वे लोक के एक भाग में होते हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। इससे आगे खेचर जीवों के चार प्रकार से कालविभाग का कथन करूँगा। १९० संतई पप्पऽणाईया अपजवसिया विय। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य॥ [१६०] प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं। किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १९१. पलिओवमस्स भागो असंखेजइमो भवे। आउट्ठिई खहयराणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy