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उत्तराध्ययनसूत्र
[ १७४] वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं, और भवस्थिति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं। १७५. एगा य पुव्वकोडीओ उक्कोसेण वियाहिया । आउट्टिई जलयराणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
[१७५] जलचरों की आयुस्थिति उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की और जघन्य अन्तमुहूर्त की है। १७६. पुव्वकोडीपुहत्तं तु उक्कोसेण वियाहिया ।
काय जलयराणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
[१७६] जलचरों की कायस्थिति उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व की है और जघन्य अन्तमुहूर्त की है। १७७ अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नियं ।
विजढंमि सए काए जलयराणं तु अन्तरं ॥
[१७७] जलचर के शरीर को छोड़ने पर पुनः जलचर के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है ।
१७८. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ।
संठाणादेसओ वा वि विहाणाइं सहस्ससो ॥
[ १७८] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं ।
स्थलचर त्रस
१७९. चउप्पया य परिसप्पा दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउविहा ते मे कित्तयओ सुण ॥
[१७९] स्थलचर जीवों के दो भेद हैं-चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद चार प्रकार के हैं, उनका निरूपण मुझ से सुनो।
१८०. एगखुरा दुखुरा चेव गण्डपय- सणप्पया ।
हयमाइ - गोणमा — गयमाइ - सीहमाइणो ॥
[१८०] एकखुर-अश्व आदि, द्विखु — बैल आदि, गण्डीपद - हाथी आदि और सनखपद - सिंह आदि हैं।
१८१. भुओरगपरिसप्पा य परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाइ अहिमाई य एक्केक्काऽणेगहा भवे ॥
[१८१] परिसर्प दो प्रकार के हैं — भुजपरिसर्प —— गोह आदि और उरः परिसर्प - सर्प आदि । इन दोनों के अनेक प्रकार हैं।
१८२. लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया ।
तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं ॥
[१८२] वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। इसके आगे अब चार प्रकार के स्थलचर जीवों के कालविभाग का कथन करूँगा ।