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________________ ६२६ उत्तराध्ययनसूत्र [ १७४] वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं, और भवस्थिति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं। १७५. एगा य पुव्वकोडीओ उक्कोसेण वियाहिया । आउट्टिई जलयराणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥ [१७५] जलचरों की आयुस्थिति उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की और जघन्य अन्तमुहूर्त की है। १७६. पुव्वकोडीपुहत्तं तु उक्कोसेण वियाहिया । काय जलयराणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥ [१७६] जलचरों की कायस्थिति उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व की है और जघन्य अन्तमुहूर्त की है। १७७ अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नियं । विजढंमि सए काए जलयराणं तु अन्तरं ॥ [१७७] जलचर के शरीर को छोड़ने पर पुनः जलचर के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है । १७८. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वा वि विहाणाइं सहस्ससो ॥ [ १७८] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं । स्थलचर त्रस १७९. चउप्पया य परिसप्पा दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउविहा ते मे कित्तयओ सुण ॥ [१७९] स्थलचर जीवों के दो भेद हैं-चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद चार प्रकार के हैं, उनका निरूपण मुझ से सुनो। १८०. एगखुरा दुखुरा चेव गण्डपय- सणप्पया । हयमाइ - गोणमा — गयमाइ - सीहमाइणो ॥ [१८०] एकखुर-अश्व आदि, द्विखु — बैल आदि, गण्डीपद - हाथी आदि और सनखपद - सिंह आदि हैं। १८१. भुओरगपरिसप्पा य परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाइ अहिमाई य एक्केक्काऽणेगहा भवे ॥ [१८१] परिसर्प दो प्रकार के हैं — भुजपरिसर्प —— गोह आदि और उरः परिसर्प - सर्प आदि । इन दोनों के अनेक प्रकार हैं। १८२. लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया । तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं ॥ [१८२] वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। इसके आगे अब चार प्रकार के स्थलचर जीवों के कालविभाग का कथन करूँगा ।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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