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________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति ६२५ आभा है, इसलिए इसका नाम 'शर्कराभा' या 'शर्कराप्रभा' है। रेत के समान जिस भूमि की कान्ति है, उसका नाम बालुकाप्रभा है। पंक अर्थात् कीचड़ के समान जिस भूमि की प्रभा है, उसका नाम पंकप्रभा है। धूम के सदृश जिस भूमि की प्रभा है, उसे धूमप्रभा कहते हैं। धूमप्रभा पृथ्वी में धुएँ के समान पुद्गलों का परिणमन होता रहता है। अन्धकार की प्रभा के समान जिस पृथ्वी की प्रभा है, वह तमः प्रभा पृथ्वी है, तथा गाढ अन्धकार के समान जिस पृथ्वी की प्रभा है, वह तमस्तमःप्रभा पृथ्वी है। नैरयिकों की कायस्थिति—प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि जिस नैरयिक की जितनी जघन्य और उत्कृष्ट आयुस्थिति है, उसकी कायस्थिति भी उतनी ही जघन्य और उत्कृष्ट होती है, क्योंकि नैरयिक मरने के अनन्तर पुनः नैरयिक नहीं हो सकता। अतः उनकी आयुस्थिति और कायस्थिति समान है। अन्तर—गा० १६८ में नरक से निकल कर पुनः नरक में उत्पन्न होने का व्यवधानकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त का बताया गया है। उसका अभिप्राय यह है कि नारक जीव नारक से निकल कर संख्यातवर्षायुष्क गर्भज तिर्यञ्च या मनुष्य में ही जन्म लेता है। वहाँ से अतिक्लिष्ट अध्यवसाय वाला कोई जीव अन्तर्मुहूर्तपरिमाण जघन्य आयु भोग कर पुनः नरक में उत्पन्न हो सकता है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रस १७०. पंचिन्दियतिरिक्खाओ दुविहा ते वियाहिया। सम्मुच्छिमतिरिक्खाओ गब्भवक्कन्तिया तहा॥ [१७०] पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों के दो भेद हैं, सम्मूच्छिम तिर्यञ्च और गर्भजतिर्यञ्च। १७१. दुविहावि ते भवे तिविहा जलयरा थलयरा तहा। खहयरा य बोद्धव्वा तेसिं भेए सुणेह मे॥ [१७१] इन दोनों (गर्भजों और सम्मूछिमों) के पुनः जलचर, स्थलचर और खेचर, ये तीनतीन भेद हैं। उनके भेद तुम मुझसे सुनो। जलचरत्रस १७२. मच्छा य कच्छभा य गाहा य मगरा तहा। सुंसुमारा य बोद्धव्वा पंचहा जलयराहिया॥ [१७२] जलचर पांच प्रकार के बताए गए हैं— मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर और सुंसुमार। १७३. लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वथ वियाहिया। एत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं॥ [१७३] वे सब लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, समग्र लोक में नहीं। इससे आगे अब उनके कालविभाग का चार प्रकार से कथन करूंगा। १७४. संतई पप्पइऽणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य। १. उत्तराप्रियदर्शिनीटीका, भा. ४, पृ.८८० २. उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. २, पत्र ३५६ ३. उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पण, पृ. ४७९
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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