________________
६२४
उत्तराध्ययनसूत्र १६३. दस सागरोवमा ऊ उक्कोसेण वियाहिया।
चउत्थीए जहन्नेणं सत्तेव उ सागरोवमा॥ [१६३] चौथी पृथ्वी में नैरयिक जीवों की आयु-स्थिति जघन्य सात सारगरोपम की और उत्कृष्ट दस सागरोपम की है।
१६४. सत्तरस सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया।
___पंचमाए जहन्नेणं दस चेव उ सागरोवमा॥ [१६४] पांचवीं पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्य दस सागरोपम की और उत्कृष्ट सत्तरह सागरोपम की है।
१६५. बावीस सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया।
छट्ठीए जहन्नेणं सत्तरस सागरोवमा॥ [१६५] छठी पृथ्वी में नैरयिक जीवों की आयु-स्थिति जघन्य सत्तरह सागरोपम की और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की है।
१६६. तेत्तीस सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया।
सत्तमाए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमा॥ [१६६] सातवीं पृथ्वी में नैरयिक जीवों की आयु-स्थिति जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है।
१६७. जा चेव उ आउठिई नेरइयाणं वियाहिया।
सा तेसिं कायठिई जहन्नुक्कोसिया भवे॥ [१६७] नैरयिक जीवों की जो आयुस्थिति, बताई गई है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति भी है।
१६८. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं।
विजढंमि सए काए नेरइयाणं तु अन्तरं॥ [१६८] नैरयिक शरीर को छोड़ने पर पुनः नैरयिक शरीर में उत्पन्न होने में जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का अन्तर है।
१६९. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो॥ [१६९] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इनके हजारों भेद हैं।
विवेचन–सात नरकपृथ्वियों के अन्वर्थक नाम- रत्नप्रभापृथ्वी में भवनपति देवों के रत्न-निर्मित आवास-स्थान हैं। इनकी प्रभा पृथ्वी में व्याप्त रहती है। इस कारण पृथ्वी का नाम 'रत्नप्रभा' या 'रत्नाभा' पड़ा है। शर्करा कहते हैं- कंकड़ों को या लघुपाषाणखण्डों को। इनकी आभा के समान दूसरी भूमि की