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उत्तराध्ययनसूत्र [१४९] इत्यादि चतुरिन्द्रिय के अनेक प्रकार हैं। वे सब लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, किन्तु सम्पूर्ण लोक में व्याप्त नहीं हैं।
१५०. संतई पप्पऽणाईया अपजवसिया वि य।
ठिइं पडुच्च साईया सपजवसिया वि य॥ [१५०] प्रवाह की अपेक्षा से वे सब अनादि-अनन्त हैं। किन्तु अपेक्षा की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
१५१. छच्चेव य मासा उ उक्कोसेण वियाहिया।
__चउरिन्दियआउठिई अन्तोमुहुत्तं जहनिया॥ [१५१] चतुरिन्द्रिय जीवों की आयुस्थिति उत्कृष्ट छह महीने की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है।
१५२. संखिजकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं।
चउरिन्दियकायठिई तं कायं तु अमुंचओ॥ [१५२] उनकी कायस्थिति उत्कृष्ट संख्यातकाल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। चतुरिन्द्रिय पर्याय को छोड़ कर लगातार चतुरिन्द्रिय-शरीर में उत्पन्न होते रहना कायस्थिति है।
१५३. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं।
विजढंमि सए काए अन्तरेयं वियाहियं॥ [१५३] चतुरिन्द्रिय शरीर को छोड़ने पर पुनः चतुरिन्द्रिय-शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का कहा गया है।
१५४. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [१२४] इनके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान की अपेक्षा से हजारों भेद हैं।
विवेचन- यहाँ जो चतुरिन्द्रिय जीवों के नाम गिनाए गए हैं, इनमें से कई तो अप्रसिद्ध हैं, कई जीव भिन्न-भिन्न देशों में तथा कुछ सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। पंचेन्द्रियत्रस-निरूपण
१५५. पंचिन्दिया उ जे जीवा चउव्विहा ते वियाहिया।
नेरइया तिरिक्खा य मणुया देवा य आहिया॥ [१५५] जो पंचेन्द्रिय जीव हैं, वे चार प्रकार के कहे गए हैं—नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव।
विवेचन-पंचेन्द्रियजीवों का जन्म और निवास— प्रस्तुत गाथा में जो चार प्रकार के पंचेन्द्रियजीव बताए गए हैं, उनका जन्म और निवास प्रायः इस प्रकार है-नैरयिकों का जन्म एवं निवास अधोलोकस्थित सात नरकभूमियों में होता है। मनुष्यों का मध्य (तिर्यक्) लोक में, और तिर्यञ्चों का जन्म एवं निवास प्रायः तिर्यक् लोक में होता है, किन्तु देवों में से वैमानिक देवों का ऊर्ध्वलोक में, ज्योतिष्कदेवों का मध्यलोक