________________
छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
६१७ विवेचन तेजस्काय के भेद-प्रभेदः अंगारे -अंगार-धूमरहित जलता हुआ कोयला । मुम्मुरेमुर्मुर–राख मिले हुए अग्निकण, चिनगारियाँ । अगणी-शुद्ध अग्नि या लोहपिण्ड में प्रविष्ट अग्नि । अच्ची अर्चि-जलते हुए काष्ठ के साथ रही हुई ज्वाला। जाला-ज्वाला-प्रदीप्त अग्नि से विच्छिन्न अग्निशिखा, आग की लपटें। उक्का-उल्कापात, आकाशीय अग्नि। और विज्ज-विद्युत-आकाशीय विद्युत-बिजली। प्रज्ञापना में इनके अतिरिक्त अलात. अशनि. निर्घात. संघर्ष-समत्थित सूर्यकान्तमणि -नि:सत को भी तेजस्काय में गिनाया है। वायु-निरूपण
११७. दुविहा वाउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा।
पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो॥ [११७] वायुकाय जीवों के दो भेद हैं- सूक्ष्म और बादर। पुनः उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त, इस प्रकार दो-दो भेद हैं।
११८. बायरा जे उ पजत्ता पंचहा ते पकित्तिया।
उक्कलिया-मण्डलिया घण-गुंजासुद्धवाया य॥ ११९. संवट्टगवाते य उणेगविहा एवमायओ।
एगविहमणाणत्ता सुहुमा ते वियाहिया॥ [११८-११९] बादर पर्याप्त वायुकाय जीवों के पांच भेद हैं- उत्कलिका, मण्डलिका, घनवात, गुंजावात, शुद्धवात और संवर्तक वात, इत्यादि और भी अनेक भेद हैं। सूक्ष्म वायुकाय के जीव एक ही प्रकार के हैं, उनके अनेक भेद नहीं हैं।
१२०. सुहमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य वायरा।
इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं॥ । [१२०] सूक्ष्म वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में, और बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इससे आगे अब वायुकायिक जीवों के कालविभाग का कथन चार प्रकार से करूंगा।
१२१. संतई पप्पऽणाईया अपजवसिया वि य।
ठिइं पडुच्च साईया सपजवसिया वि य॥ [१२१] वायुकाय के जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं, और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
१२२. तिण्णेव सहस्साइं वासाणुक्कोसिया भवे।
आऊट्टिई वाऊणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया॥ [१२२] वायुकायिक जीवों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीनहजार वर्ष की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। १. (क) उत्तरा. गुज. भाषान्तर भा. २, पत्र ३५१ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा० ४, पृ० ८५६
(ग) प्रज्ञापना पद १, पृ. ४५ आगमप्रकाशन-समिति, ब्यावर