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________________ ६१६ उत्तराध्ययनसूत्र १०९. बायरा जे उ पज्जत्ता णेगहा ते वियाहिया। इंगाले मुम्मुरे अग्गी अच्चिं जाला तहेव य॥ [१०९] जो बादर पर्याप्त तेजस्काय हैं, वे अनेक प्रकार के कहे गए हैं। जैसे –अंगार, मुर्मुर (भस्ममिश्रित अग्निकण), अग्नि, अर्चि (–दीपशिखा आदि) ज्वाला और ११०. उक्का विजू य बोद्धव्वा णेगहा एवमायओ। एगविहमणाणत्ता सुहुमा ते वियाहिया॥ [११०] उल्का, विद्युत इत्यादि। सूक्ष्म तेजस्काय के जीव एक ही प्रकार के हैं; उनके नाना प्रकार नहीं हैं। १११. सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा। इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं॥ [१११] सूक्ष्म तेजस्काय के जीव समग्र लोक में और बादर तेजस्काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इससे आगे उन तेजस्कायिक जीवों के चार प्रकार के कालविभाग का कथन करूंगा। ११२, संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य॥ ११२] वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं, और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। ११३. तिण्णेव अहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया। __ आउट्ठिई तेऊणं अन्तोमुहत्तं जहन्निया॥ [११३] तेजस्काय की आयुस्थिति उत्कृष्ट तीन अहोरात्र (दिन-रात) की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। ११४. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं। ___ कायट्ठिई तेऊणं तं कायं तु अमुंचओ॥ _ [११४] तेजस्काय की कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। तेजस्काय को छोड़ कर लगातार तेजस्काय में ही उत्पन्न होते रहना कायस्थिति है। ११५. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए तेउजीवाण अन्तरं॥ [११५] तेजस्काय को छोड़ कर (अन्य कायों में उत्पन्न होकर) पुनः तेजस्काय में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। ११६. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो॥ [११६] इनके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा के अनेक भेद हैं।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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