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________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति ६१५ लता और वल्ली में अन्तर - लता किसी बड़े पेड़ पर लिपट कर ऊपर को फैलती है, जबकि वल्ली भूमि पर ही फैल कर रह जाती है। जैसे—माधवी, अतिमुक्तक लता आदि, ककड़ी, खरबूजा आदि की बेल (वल्ली) । ओषधितृण - अर्थात् एक फसल वाला पौधा । जैसे गेहूँ, जौ आदि । २ 'पनक' का अर्थ — इसका सामान्य अर्थ सेवाल, या जल पर की काई है। सकाय के तीन भेद १०७. तेऊ वाऊ य बोद्धव्वा उराला य तसा तहा । इच्चेए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे ॥ [१०७] तेजस्काय (अग्निकाय), वायुकाय और उदार (एकेन्द्रिय त्रसों की अपेक्षा स्थूल द्वीन्द्रिय आदि) स—ये तीन त्रसकाय के भेद हैं। उनके भेदों को मुझ से सुनो। विवेचन – तेजस्काय एवं वायुकाय: स्थावर या त्रस ? – आगमों में कई जगह तेजस्काय और वायुकाय को पांच स्थावर रूप एकेन्द्रिय जीवों में बताया है, जब कि यहाँ तथा तत्त्वार्थसूत्र में इन दोनों को स में परिगणित किया है, इस अन्तर का क्या कारण है ? पंचास्तिकाय में इसका समाधान करते हुए कहा गया है— पृथ्वी, अप् और वनस्पति, ये तीन तो स्थिरयोगसम्बन्ध के कारण स्थावर कहे जाते हैं, किन्तु अग्निकाय और वायुकाय उन पांच स्थावरों में ऐसे हैं, जिनसे चलनक्रिया देख कर व्यवहार से उन्हें त्रस कह दिया जाता है । स दो प्रकार के हैं—लब्धित्रस और गतित्रस । त्रसनामकर्म के उदय वाले लब्धित्रस कहलाते हैं । किन्तु नामकर्म का उदय होने पर भी त्रस जैसी गति होने के कारण जो त्रस कहलाते हैं वे गतित्रस कहलाते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक उपचारमात्र से त्रस हैं । ३ अग्निकाय की सजीवता — पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती है, इसलिए अग्नि में जीव है । वायुकाय की सजीवता — वायु में भी जीव है, क्योंकि वह गाय की तरह दूसरे से प्रेरित हुए बिना ही गमन करती है। तेजस्काय - निरूपण १०८ दुविहा तेउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ॥ [१०८] तेजस् (अग्नि) काय के जीवों के दो भेद हैं— सूक्ष्म और बादर । पुनः इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो-दो भेद हैं । २. वही, पृ. ३३६ (ख) 'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरा: ' तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्व त्रसाः । - • तत्त्वार्थसूत्र २ / १३-१४ (ग) तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलाल जी) पृ. ५५ १. उत्तरा ( टिप्पण) (मुनि नथमल जी), पृ. ३२६ ३. (क) पंचास्तिकाय मूल, ता० वृत्ति, १११ गा० ४. ( क ) तेजोऽपि सात्मकम्, आहारोपादानेन वृद्धयादिविकारोपलम्भात् पुरुषांगवत् । (ख) 'वायुरपि सात्मकः अपरप्रेरितत्वे तिर्यग्गतिमत्त्वाद् गोवत् ।'- - स्याद्वादमंजरी २१ / ३३० / १०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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