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________________ ६१४ उत्तराध्ययनसूत्र [१०१] वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १०२. दस चेव सहस्साई वासाणुक्कोसिया भवे। __ वणप्फईण आउं तु अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं॥ [१०२] वनस्पतिकायिक जीवों की (एक भव की) आयु-स्थिति उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। १०३. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं। कायठिई पणगाणं तं कायं तु अमुंचओ॥ [१०३] वनस्पतिकाय की कायस्थिति उत्कृष्ट अनन्तकाल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। वनस्पतिकाय को न छोड़ कर लगातार वनस्पति (पनकोपलक्षित) काय में ही पैदा होते रहना कायस्थिति है। १०४. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए पणगजीवाणं अन्तरं॥ [१०४] वनस्पतिकायिक पनक जीवों का स्व-काय (वनस्पति-शरीर) को छोड़ कर पुनः वनस्पतिशरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर होता है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट असंख्यातकाल का है। १०५. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [१०५] इन वनस्पतिकायिक (-जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से हजारों भेद हैं। १०६. इच्चेए थावरा तिविहा समासेण वियाहिया। उत्तो उ तसे तिविहे वुच्छामि अणुपुव्वसो॥ [१०६] इस प्रकार संक्षेप में इन तीन प्रकार के स्थावर जीवों का निरूपण किया गया है। अब यहाँ से आगे क्रमशः तीन प्रकार के त्रस जीवों का निरूपण करूंगा। विवेचन-वनस्पति में जीव है-पुरुष के अंगों की तरह छेदने से उनमें म्लानता देखी जाती है, कुछ वनस्पतियों में नारी-पदाघात आदि से विकार होता है, इसलिए भी वनस्पति में जीव है।* वनस्पति ही जिसका शरीर है, ऐसा जीव, वनस्पतिकाय या वनस्पतिकायिक कहलाता है। इसके मुख्यतः दो रूप हैं—साधारणशरीर और प्रत्येकशरीर। जिन अनन्त जीवों का एक ही शरीर होता है, यहाँ तक कि आहार और श्वासोच्छ्वास भी समान ही होता है, वे साधारणवनस्पति जीव हैं और जिन वनस्पति जीवों का अपना अलग-अलग शरीर होता है, वे प्रत्येकवनस्पति जीव हैं । साधारण शरीर वाले वनस्पति जीव एक शरीर के आश्रित अनन्त रहते हैं, प्रत्येकजीव में एक शरीर के आश्रित एक ही जीव रहता है। गुच्छ और गुल्म में अन्तर-गुच्छ वह होता है, जिसमें पत्तियाँ या केवल पतली टहनियाँ फैली हों, वह पौधा । जैसे—बैंगन, तुलसी आदि। तथा गुल्म वह है, जो एक जड़ से कई तनों के रूप में निकले, वह पौधा । जैसे—कटसरैया, कैर आदि। स्याद्वादमंजरी २९/३३०/१० १. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ४, पृ.८४३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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