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उत्तराध्ययनसूत्र
१२३. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं।
कायट्टिई वाऊणं तं कायं तु अमुंचओ॥ [१२३] वायुकायिक जीवों की कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। वायुकाय को न छोड़ कर लगातार वायु-शरीर में हो उत्पन्न होना कायस्थिति है।
१२४. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमहत्तं जहन्नयं।
___ विजढंमि सए काए वाउजीवाण अन्तरं॥ __ [१२४] वायुकाय को छोड़ कर पुनः वायुकाय में उत्पन्न होने में जो अन्तर (काल का व्यवधान) है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है।
१२५. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ।
___संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो॥ [१२५] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वायुकाय के हजारों भेद होते हैं।
विवेचन-वायुकायिक प्रभेदों के विशेषार्थ- उत्कलिकावत् – ठहर-ठहर कर चलने वाला वायु, अथवा घूमता हुआ ऊँचा जाने वाला पवन । मण्डलिकावात-धूल आदि के गोटे सहित गोलाकार घूमने वाला पवन, अथवा पृथ्वी में लगता हुआ चक्कर वाला पवन । घनवात- घनोदधिवात- रत्नप्रभा आदि भूमियों के अधोवर्ती धनोदधियों का वायु। गुंजावात— गूंजता हुआ चलने वाला पवन । संवर्तकवात—जो वायु तृणादि को उड़ा कर अन्यत्र ले जाए, वह ।
उन्नीस प्रकार के वात- प्रज्ञापना में १९ प्रकार के वात बताए गए हैं— चार दिशाओं के चार, चार ऊर्ध्व अधो तिर्यक् विदिक् वायु, (९) वातोद्घाम (अनियमित) (१०) वातोत्कलिका, (तूफानीपवन), (११) वातमण्डली (अनिर्धारित वायु), (१२) उत्कलिकावात, (१३) मण्डलिकावात, (१४) गुंजावात, (१५) झंझावात, (वर्षायुक्तपवन) (१६) संवर्तकवात, (१७) घनवात, (१८) तनुवात, (१९) शुद्धवात। उदार-त्रसकाय- निरूपण
१२६. ओराला तसा जे उ चउहा ते पकित्तिया।
बेइन्दिय तेइन्दिय चउरो-पंचिन्दिया चेव॥ [१२६] उदार वस चार प्रकार के कहे हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय।
विवेचन-उदारत्रस- उदार का अर्थ स्थूल है, जो सामान्य जनता के द्वारा मान्य और प्रत्यक्ष हों, जिनको त्रसनाम कर्म का उदय हो।
१. (क) मूलाराधना २१२ गा.:
__"वादुब्भामो उक्कलिमंडलिगुंजा महाघणु-तणु या ते जाण वाउजीवा, जाणित्ता, परिहरेदव्वा॥"
(ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटिका, भा. ४, पृ.८६०-८६१ २. प्रज्ञापना पद १