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छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
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कि लवण, या चट्टान आदि खोद कर निकाल लेने के बाद खाली जगह को कचरा आदि से भर देने पर कालान्तर में वहाँ लवण की परतें या चट्टानें बन जाती हैं। इसलिए पृथ्वी में सजीवता अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से सिद्ध है। पृथ्वीकाय जीवों के दो भेद— सूक्ष्म और बादर । फिर दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद । बादरपर्याप्त पृथ्वीकाय के दो भेद — मृदु और कठोर । मृदु के सात और कठोर के छत्तीस भेद कहे गए हैं।
पर्याप्त - अपर्याप्त - जिस कर्मदलिक से आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनः पर्याप्ति की उत्पत्ति होती है, वह कर्मदलिक पर्याप्ति कहलाता है । यह कर्मदलिक जिसके उदय में होता है, वे पर्याप्त जीव हैं, अपनी योग्य पर्याप्ति से जो रहित हैं, वे अपर्याप्त जीव हैं । २
श्लक्ष्ण एवं खर : विशेषार्थ - चूर्णित लोष्ट के समान जो मृदु पृथ्वी है, वह श्लक्ष्ण और पाषण जैसी कठोर पृथ्वी खर कहलाती है। ऐसे शरीर वाले जीव भी उपचार से क्रमशः श्लक्ष्ण और खर पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं । ३
अप्काय-निरूपण
[८४] अप्काय के जीवों के दो भेद हैं— सूक्ष्म तथा बादर । पुनः दोनों के दो-दो भेद हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त ।
८५. बायरा 'उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया । सुद्धोदय उस्से हरतणू महिया हिमे ॥
[८५] जो बादर-पर्याप्त अप्काय के जीव हैं, वे पांच प्रकार के कहे गए हैं-- (१) शुद्धोदक, (२) ओस (अवश्याय) (३) हरतनु ( गीली भूमि से निकला वह जल जो प्रातःकाल तृणाग्र पर बिन्दुरूप में दिखाई देता है।), (४) महिका ( कुहासा — धुम्मस) और (५) हिम (बर्फ) ।
८४. दुविहा आउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ॥
८६. एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया ।
सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा ॥
[८६] उनमें से सूक्ष्म अप्काय के जीव एक ही प्रकार के हैं, उनके नाना भेद नहीं हैं । सूक्ष्म अप्काय के जीव समग्र लोक में और बादर अप्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । ८७. सन्तई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य ।
ठिएं पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय।
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(क) पृथिव्येव कायो येषां ते पृथ्वीकायिनः । पृथिवी काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता, सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः । ' - प्रज्ञापना पद १ वृत्ति
(ख) उत्तरा प्रियदर्शिनी टीका भा. ४, पृ ८२४
उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका, भा. ४, पृ. ८२५
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'......... श्लक्ष्णा चूर्णितलोष्टकल्पा मृदुः पृथिवी, तदात्मका जीवा अप्युपचारात् श्लक्ष्ण उच्यन्ते । ' पाषाणकल्पा कठिना पृथ्वी खरा, तदात्मका जीवा अप्युपचारात् खरा उच्यन्ते । '
—वही, भा. ४, पृ. ८२७