SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 709
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१० ७७. एए खरपुढवीय भेया छत्तीसमाहिया । एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया ॥ [७७] ये कठोर (खर) पृथ्वीकाय के छत्तीस भेद हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव एक ही प्रकार के हैं । अतः वे अनाना हैं—भेदों से रहित हैं । ७८. सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा । इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं ॥ उत्तराध्ययनसूत्र [७८] सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं और बादर पृथ्वीकाय के जीव लोक के एक देश (भाग) में हैं । अब चार प्रकार से पृथ्वीकायिक जीवों के कालविभाग का कथन करूँगा । ७९. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य । ठिएं पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय ॥ [७९] पृथ्वीकायिक जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि - अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। ८०. बावीससहस्साइं वासाणुक्कोसिया भवे । उठि पुढवीणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥ [८०] पृथ्वीकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति बाईस हजार वर्ष की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। ८१. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । काठई पुढवीणं तं कायं तु अमुंचओ ॥ [८१] पृथ्वीकायिक जीवों की उत्कृष्ट कार्यस्थिति असंख्यात काल (असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल) की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है। पृथ्वीकाय को न छोड़ कर लगातार पृथ्वीकाय में ही उत्पन्न होते रहना पृथ्वीकायिकों की कायस्थिति कहलाती है। ८२. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सकाए पुढवीजीवाण अन्तरं ॥ [८२] पृथ्वीकाय को एक बार छोड़ कर (दूसरे दूसरे कायों में उत्पन्न होते रहने के पश्चात् ) पुनः पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने के बीच का अन्तर- (काल) जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है। ८३. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ । संठाणादेसओ वा वि विहाणाई सहस्ससो ॥ [८३] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा (आदेश) से इन (पृथ्वीकायिकों) के हजारों भेद होते हैं। विवेचन — पृथ्वीकाय : स्वरूप और भेद-प्रभेद आदि - काठिन्यादिरूपा पृथ्वी ही जिसका शरीर है, उसे पृथ्वीकाय कहते हैं। पृथ्वी में जीव है, इसलिए यहाँ 'पुढवीजीवा' कहा गया है। यह देखा गया है
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy