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उत्तराध्ययनसूत्र
धर्म-तीर्थ के उच्छेद के समय मुक्तों का पुनः संसार से आगमन मानते हैं, उनके मत का निराकरण हो
गया। १
इह बौदिं चत्ताणं - यहाँ पृथ्वी पर शरीर को छोड़ कर वहाँ लोकाग्र में स्थित होते हैं। इसका अभिप्राय इतना ही है कि गतिकाल का सिर्फ एक समय है। अतः पूर्वापरकाल की स्थिति असंभव होने से जिस समय भवक्षय होता है, उसी समय में लोकाग्र तक गति और मोक्ष- स्थिति हो जाती है। निश्चय दृष्टि से तो भवक्षय होते ही यहीं सिद्धत्व भाव प्राप्त हो जाता है।
सिद्धिं वरगइं गया — " (मुक्त) जीव सिद्ध नाम श्रेष्ठगति में पहुँच गए।" इस कथन से यह बताया गया है कि कर्म का क्षय होने पर भी उत्पत्ति समय में स्वाभाविक रूप से लोक के अग्रभाग तक सिद्ध जीव गमन करता है, अर्थात् वहाँ तक सिद्ध जीव गतिक्रिया सहित भी है। सिद्ध लोकाग्र में स्थित हैं, इसका आशय यही है कि उनकी ऊर्ध्वगमनरूप गति वहीं तक है। आगे अलोक में गतिहेतुक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से गति नहीं है।
संसारस्थ जीव
६८. संसारत्था उ जे जीवा दुविहा ते वियाहिया । तसा यथावरा चेव थावरा तिविहा तहिं ।।
[६८] जो संसारस्थ (संसारी) जीव हैं, उनकें दो भेद हैं— त्रस और स्थावर । उनमें से स्थावर जीव तीन प्रकार के हैं ।
विवेचन — त्रस और स्थावर - ( १ ) त्रस का लक्षण — अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने-फिरने की शक्ति वाले जीव, या त्रस्त — भयभीत होकर गति करने वाले या त्रस नामकर्म के उदय वाले जीव । ३
स्थावर — स्थावर नामकर्म के उदय वाले या एकेन्द्रिय जीव । एकेन्द्रिय को स्थावर जीव इसलिए कहा है कि वह एक मात्र स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा ही जानता, देखता, खाता है, सेवन करता और उसका स्वामित्व करता है । स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण पृथ्वीकायिक आदि पांचों ही स्थावर कहलाते हैं ।
प्रस्तुत गाथा में वायुकाय और अग्निकाय को गतित्रस में परिगणित करने के कारण स्थावर जीवों के तीन भेद बताए हैं। स्थावरनामकर्म का उदय होने से वस्तुतः वे स्थावर हैं। उनको एक स्पर्शनेन्द्रिय ही प्राप्त है।
(ख) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. २, पत्र ३४४
१. उत्तरा गुजराती भाषान्तर भाग २, पत्र ३४४ २. (क) उत्तरा . ( साध्वी चन्दना) पृ. ४७८ ३. (क) जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष, भा. २, पृ. ३९७ (ग) यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम।'
(ख) त्रस्यन्ति उद्विजन्ति इति त्रसाः । राजवार्तिक २/१२/२ —सर्वार्थसिद्धि ८/११/३९१
(घ) जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं संचरणासंरचणभावो होदि तं कम्मं तसणामं । - धवला १३ / ५, ५/१०१
(क) 'स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिनः स्थावराः ।
— सर्वार्थसिद्धि २/१२/१७१
(ख) जाणदि पस्सदि भंजदि सेवदि पस्सिदिएण एक्केण । कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एकेंदिओ तेण ॥
(ग) एते पंचापि स्थावराः, स्थावरनामकर्मोदयजनितविशेषत्वात् (घ) तिष्ठन्तीत्येवं शीला: स्थावराः ।
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- धवाला १/१, १/३३/१३५ वही, गा. २६५ - राजवार्तिक २ / १२ / १२७