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छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
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साधारणतया जीव तिर्यक्लोक से सिद्ध होते हैं, परन्तु कभी-कभी मेरुपर्वत की चूलिका पर से भी सिद्ध होते हैं । मेरुपर्वत की ऊँचाई १ लाख योजन परिमाण है। अतः इस ऊर्ध्वलोक की सीमा से मुक्त होने वाले जीवों का सिद्धक्षेत्र ऊर्ध्वलोक ही होता है। सामान्यतया अधोलोक से मुक्ति नहीं होती, परन्तु महाविदेह क्षेत्र की दो विजय, मेरु के रुचकप्रदेशों से एक हजार योजन नीचे तक चली जाती है, जबकि तिर्यक्लोक की कुल सीमा ९०० योजन है, अत: उससे आगे अधोलोक की सीमा आ जाती है, जिसमें १०० योजन की भूमि में जीव मुक्त होते हैं।
लिंग, अवगाहना एवं क्षेत्र की दृष्टि से सिद्धों की संख्या-गाथा ५१ से ५४ तक के अनुसार एक समय में नपुंसक दस, स्त्रियाँ २० और पुरुष १०८ तक सिद्ध हो सकते हैं। एक समय में गृहस्थलिंग में ४, अन्यलिंग में १० तथा स्वलिंग में १०८ जीव सिद्ध हो सकते हैं। एक समय में उत्कृष्ट अवगाहना में २, मध्यम अवगाहना में १०८ और जघन्य अवगाहना में ४ सिद्ध हो सकते हैं। एक समय में ऊर्ध्वलोक में ४, अधोलोक में २०, तिर्यक्लोक में १०८, समुद्र में २ और जलाशय में ३ जीव सिद्ध हो सकते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्ट बताया गया है कि क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व, इन आधारों पर सिद्धों की विशेषताओं का विचार किया जाता है।२
ईषत्प्रारभारा पृथ्वी-औपपातिक सूत्र में सिद्धशिला के बताए हुए १२ नामों में से यह दूसरा नाम
सिद्धों की अवस्थिति-मुक्त जीव समग्र लोक में व्याप्त होते हैं, इस मत का निराकरण करने के लिए कहा गया है-लोएगदेसे ते सव्वे—सर्व सिद्धों की आत्माएँ लोक के एक देश में (परिमित क्षेत्र) में अवस्थित होती हैं। पूर्वावस्था में ५०० धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना वाले जीवों की आत्मा ३३३ धनुष १ हाथ ८ अंगुल परिमित क्षेत्र में, मध्यम अवगाहना (दो हाथ से अधिक) और ५०० धनुष से कम अवगाहना वाले जीवों की आत्मा अपने अन्तिम शरीर की अवगाहना से त्रिभागहीन क्षेत्र में अवस्थित होती है, तथा पूर्वावस्था में जघन्य (२ हाथ की) अवगाहना वाले जीवों की आत्मा १ हाथ ८ अंगुल परिमित क्षेत्र में अवस्थित होती है। शरीर न होने पर भी सिद्धों की अवगाहना होती है, क्योंकि अरूपी आत्मा भी द्रव्य होने से अपनी अमूर्त आकृति तो रखता ही है। द्रव्य आकृतिशून्य कदापि नहीं होता। सिद्धों की आत्मा आकाश के जितने प्रदेश-क्षेत्रों का अवगाहन करता है, इस अपेक्षा से सिद्धों की अवगाहना है।
सिद्ध : ज्ञानदर्शन रूप-सिद्ध ज्ञान-दर्शन की ही संज्ञा वाले हैं, अर्थात्-ज्ञान और दर्शन के उपयोग बिना उनका दूसरा कोई स्वरूप नहीं है। इस कथन से जो नैयायिक मुक्ति में ज्ञान का नाश मानते हैं, उसके मत का खण्डन किया गया।
सिद्ध : संसार-पार-निस्तीर्ण—'संसार के पार पहुँचे हुए' कहने से जो दार्शनिक 'मुक्ति में जाकर १. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. २, पत्र ३४० (ख) वही, बृहवृत्ति, पत्र ६८३ (ग) उत्तरा. टिप्पण, पृ. ३१८ २. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. २, पत्र ३४१ (ख) "क्षेत्र-काल-गति-लिंग-तीर्थ-चारित्र- प्रत्येकबुद्धबोधित- ज्ञानावगाहनान्तर-संख्याऽल्पबहुत्वतः साध्याः।"
-तत्त्वार्थ. १०/७ ३. औपपातिकसूत्र, सू. ४६ ४. उत्तरा. टिप्पण (मुनि नथमलजी) पृ. ३१९ ५. उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. २, पत्र ३४३-३४४