SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 680
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८१ . चौतीसवाँ अध्ययन : लेश्याध्ययन [४२] नीललेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम है। ४३. दस उदही पलिय मसंखभागं जहनिया होइ। __तेत्तीससागराइं उक्कोसा होइ किण्हाए॥ [४३] कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम है और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है। ४४. एसा नेरइयाणं लेसाण ठिई उ वणिया होइ। तेण परं वोच्छामि तिरिय-मणुस्साण देवाणं॥ [४४] यह नैरयिक जीवों की लेश्याओं की स्थिति का वर्णन किया है। इसके आगे तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों की लेश्या-स्थिति का वर्णन करूँगा। ४५. अन्तोमुहुत्तमद्धं लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ। _ तिरियाण नराणं वा वजित्ता केवलं लेसं॥ [४५] केवल शुक्ललेश्या को छोड़ कर मनुष्यों और तिर्यञ्चों की जितनी भी लेश्याएँ हैं, उन सबकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। ४६. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ। नवहि वरिसेहि ऊणा नायव्वा सुक्कलेसाए॥ [४६] शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष कम एक करोड़ पूर्व है। ४७. एसा तिरिय-नराणं लेसाण ठिई उ वणिया होइ। तेण परं वोच्छामि लेसाण ठिई उ देवाणं॥ [४७] मनुष्यों और तिर्यञ्चों की लेश्याओं की स्थिति का यह वर्णन किया है। इससे आगे देवों की लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूंगा। ४८. दस वाससहस्साइं किण्हाए ठिई जहन्निया होइ। पलियमसंखिज्जइमो उक्कोसा होइ किण्हाए॥ [४८] (देवों को) कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है, और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। ४९. जा किण्हाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया। जहन्नेणं नीलाए पलियमसंखं तु उक्कोसा॥ [४९] कृष्णलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक, नीललेश्या की जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यतवाँ भाग है। ५०. जा नीलाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया। जहन्नेणं काऊए पलियमसंखं च उक्कोसा।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy