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समीक्षात्मक अध्ययन/६७ - प्रवचन-माताएं
चौवीसवें अध्ययन का नाम 'समिईओ' है। समवायांग सूत्र में यह नाम प्राप्त है।२३६ उत्तराध्ययन नियुक्ति में प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'प्रवचनमात' या 'प्रवचनमाता' मिलता है।२३७ सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान को 'प्रवचन' कहा जाता है। उसकी रक्षा हेतु पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ माता के सदृश हैं। ये प्रवचन-माताएँ चारित्ररूपा हैं। द्वादशांगी में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ही विस्तार से निरूपण है। इसलिये द्वादशांगी प्रवचनमाता का ही विराट रूप है। लौकिक जीवन में माँ की महिमा विश्रुत है। वह शिश के जीवन के संवर्धन के साथ ही संस्कारों का सिंचन करती है। वैसे ही आध्यात्मिक जीवन में ये प्रवचन-माताएँ जगदम्बा के रूप हैं। इसलिये भी इन्हें प्रवचनमाता कहा है।२३८ प्रसव और समाना इन दोनों अर्थों में माता शब्द का व्यवहार हुआ है। भगवान् जगत्-पितामह के रूप में हैं।२३६ आत्मा के अनन्त आध्यात्मिक-सद्गुणों को विकसित करने वाली ये प्रवचनमाताएँ
प्रतिक्रमण सूत्र के वृत्तिकार आचार्य नमि२४० ने समिति की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि प्राणातिपात प्रभृति पापों से निवृत्त रहने के लिये प्रशस्त एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक् प्रवृत्ति समिति है। साधक का अशुभ योगों से सर्वथा निवृत्त होना गुप्ति है। आचार्य उमास्वातिजी ने भी लिखा२४१ है-मन, वचन और काय के योगों का जो प्रशस्त निग्रह है, वह गुप्ति है।
आचार्य शिवार्य ने लिखा है कि जिस योद्धा ने सुदृढ़ कवच धारण कर रखा हो, उस पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा हो तो भी वे तीक्ष्ण बाण उसे बींध नहीं सकते। वैसे ही समितियों का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला श्रमण जीवन के विविध कार्यों में प्रवृत्त होता हुआ पापों से निर्लिप्त रहता है ।२४२ जो श्रमण आगम के रहस्य को नहीं जानता किन्तु प्रवचनमाता को सम्यक् प्रकार से जानता है, वह स्वयं का भी कल्याण करता है
और दूसरों का भी! श्रमणों के आचार का प्रथम और अनिवार्य अंग प्रवचनमाता है, जिस के माध्यम से श्रामण्य धर्म का विशुद्ध रूप से पालन किया जा सकता है।
प्रस्तुत अध्ययन में समितियों और गुप्तियों का सम्यक निरूपण हुआ है।
ब्राह्मण
पच्चीसवें अध्ययन में यज्ञ का निरूपण है। यज्ञ वैदिक संस्कृति का केन्द्र है। पापों का नाश, शत्रुओं का संहार, विपत्तियों का निवारण, राक्षसों का विध्वंस, व्याधियों का परिहार, इन सब की सफलता के लिये यज्ञ आवश्यक माना गया है। क्या दीर्घायु, क्या समृद्धि, क्या अमरत्व का साधन सभी यज्ञ से उपलब्ध होते हैं। ऋग्वेद में ऋषि ने कहा - यज्ञ इस उत्पन्न होने वाले संसार की नाभि है। उत्पत्तिप्रधान है। देव तथा ऋषि यज्ञ से समुत्पन्न हुए। यज्ञ से ही ग्राम और अरण्य के पशुओं की सृष्टि हुई। अश्व, गाएं, भेड़ें, अज, वेद आदि का निर्माण भी यज्ञ के कारण ही हुआ। यज्ञ ही देवों का प्रथम धर्म था।२४३ इस प्रकार ब्राह्मण-परम्परा यज्ञ के चारों
ओर चक्कर लगा रही है। भगवान् महावीर के समय सभी विज्ञ ब्राह्मणगण यज्ञ कार्य में जुटे हुए थे। श्रमण भगवान् महावीर ने और उनके संघ के अन्य श्रमणों ने 'वास्तविक यज्ञ क्या है? तथा सच्चा ब्राह्मण-कौन है?' इस सम्बन्ध में अपना चिन्तन प्रस्तुत किया। जिस यज्ञ में जीवों की विराधना होती है उस यज्ञ का भगवान् ने २३६. समवायांगसूत्र, समवाय ३६
२३७. उत्तराध्ययन नियुक्ति-गाथा ४५८, ४५९ २३८. उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २४ गाथा-१
२३९. नन्दीसूत्र-स्थविरावली गाथा-१ २४०. सम्-एकीभावेन, इतिः प्रवृत्तिः समितिः
२४१. तत्त्वार्थसूत्र अ. ९ सू. ४ २४२. मूलाराधना ६, १२०२
२४३. ऋग्वेद- वैदिक संस्कृति का विकास, पृष्ठ ४०