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चौतीसवाँ अध्ययन : लेश्याध्ययन
५७५ का श्वेत बताया गया है। यह वर्णकथन मुख्यता के आधार पर है। भगवतीसूत्र के अनुसार प्रत्येक लेश्या में एक वर्ण तो मुख्यरूप से और शेष चार वर्ण गौणरूप से पाए जाते हैं। ३. रसद्वार
१०. जह कडुयतुम्बगरसो निम्बरसो कडुयरोहिणिरसो वा।
एत्तो वि अणन्तगुणो रसो उ किण्हाए नायव्वो॥ [१०] जैसे कड़वे तुम्बे का रस, नीम का रस अथवा रोहिणी का रस (जितना) कड़वा होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक कडुवा कृष्णलेश्या का रस जानना चाहिए।
११. जह तिगडुयस्स य रसो तिक्खो जह हत्थिपिप्पलीए वा।
एत्तो वि अणन्तगुणो रसा उ नीलाए नायव्वो॥ [११] त्रिकटुक (सोंठ, पिप्पल और काली मिर्च, इन त्रिकटुक) का रस अथवा गजपीपल का रस जितना तीखा होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक तीखा नीललेश्या का रस समझना चाहिए।
१२. जह तरुणअम्बगरसो तुवरकविट्ठस्स वावि जारिसओ।
एत्तो वि अणन्तगुणो रसो उकाऊए नायव्वो ॥ [१२] कच्चे (अपक्व) आम और कच्चे कपित्थ फल का रस जैसा कसैला होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक (कसैला) कापोतलेश्या का रस जानना चाहिए।
१३. जह परियणम्बगरसो पक्ककविट्ठस्स वावि जारिसओ।
___एत्तो वि अनन्तगुणो रसो उ तेऊए नायव्वो।। [१३] पके हुए आम अथवा पके हुए कपित्थ का रस जैसे खटमीठा होता है, उससे भी अनन्तगुणा खटमीठा रस तेजोलेश्या का समझना चाहिए।
१४. वरवारुणीए व रसो विविहाण व आसवाण जारिसओ।
महु-मेरगस्स व रसो एत्तो पम्हाए परएणं॥ [१४] उत्तम मदिरा का रस (फूलों से बने हुए) विविध आसवों का रस, मधु (मद्यविशेष) तथा मैरेयक (सरके) का जैसा रस (कुछ खट्टा तथा कुछ कसैला) होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक (अम्ल-कसैला) रस पद्मलेश्या का समझना चाहिए।
१५. खजूर-मुद्दियरसो खीररसो खण्ड-सक्कररसो वा।
एत्तो वि अणन्तगुणो रसो उ सुक्काए नायव्वो॥ [१५] खजूर और द्राक्षा (किशमिश) का रस, क्षीर का रस अथवा खांड या शक्कर का रस जितना मधुर होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक मधुर शुक्ललेश्या का रस जानना चाहिए। १. (क) प्रज्ञापना पद १७ (ख) 'एयाओ णं भंते ! छल्लेसाओ कइसु वन्नेसु साहिज्जंति?
गोयमा! पंचसु वण्णेसु साहिज्जति।.....' -भगवती श.७, उ. ३, सू. २२६