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उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन–छहों लेश्याओं का रस—कृष्णलेश्या का कड़वा, नीललेश्या का तीखा (चरपरा), कापोतलेश्या का कसैला, तेजोलेश्या का खटमीठा, पद्मलेश्या का कुछ खट्टा-कुछ कसैला, और शुक्ललेश्या का मधुर रस होता है। ४. गन्धद्वार
१६. जह गोमडस्स गन्धो सुणगमडगस्स व जहा अहिमडस्स।
एत्तो वि अणन्तगुणो लेसाणं अप्पसत्थाणं॥ [१६] मरी हुई गाय, मृत कुत्ते और मरे हुए सांप की जैसी दुर्गन्ध होती है, उससे भी अनन्तगुणी अधिक दुर्गन्ध (कृष्णलेश्या आदि) तीनों अप्रशस्त लेश्याओं की होती है।
१७. जह सुरहिकुसुमगन्धे गन्धवासाण पिस्समाणाणं।
एत्तो वि अणन्तगुणो पसत्थलेसाण तिण्हं पि॥ [१७] सुगन्धित पुष्प और पीसे जा रहे सुवासित गन्धद्रव्यों की जैसी गन्ध होती है, उससे भी अनन्तगुणी अधिक सुगन्ध तीनों प्रशस्त (तेजो-पद्म-शुक्ल) लेश्याओं की है।
विवेचन–अप्रशस्त और प्रशस्त लेश्याओं की गन्ध–प्रस्तुत गाथाओं में अप्रशस्त तीन लेश्याओं (कृष्ण, नील, कापोत) की गन्ध दुर्गन्धित द्रव्यों से भी अनन्तगुणी अनिष्ट बताई गई है। यहाँ कापोत, नील
और कृष्ण इस व्युत्क्रम से अप्रशस्त लेश्याओं में दुर्गन्ध का तारतम्य समझ लेना चाहिए। इसी तरह तीन प्रशस्त (तेजो-पद्म-शुक्ल) लेश्याओं की गन्ध सुगन्धित द्रव्यों से भी अनन्तगुणी अच्छी सुगन्ध बताई गई है। अतः इन तीनों प्रशस्त लेश्याओं में सुगन्ध का तारतम्य क्रमशः उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर समझना चाहिए। ५. स्पर्शद्वार
१८. जह करगयस्स फासो गोजिन्भाए ब सागपत्ताणं।
एत्तो वि अणन्तगुणो लेसाणं अप्पसत्थाणं॥ [१८] करवत (करौत), गाय की जीभ और शाक नामक वनस्पति के पत्तों का स्पर्श जैसा कर्कश होता है; उससे भी अनन्तगुणा अधिक कर्कश स्पर्श तीनों अप्रशस्त लेश्याओं का होता है।
१९. जह बूरस्स व फासो नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं।
____एत्तो वि अणन्तगुणो पसत्थलेसाण तिण्हं पि॥ ___ [१८] जैसे बूर (वनस्पति-विशेष), नवनीत (मक्खन) अथवा शिरीष के पुष्पों का स्पर्श कोमल होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक कोमल स्पर्श तीनों प्रशस्त लेश्याओं का होता है।
विवेचन–अप्रशस्त-प्रशस्त लेश्याओं का स्पर्श-प्रस्तुत में भी अप्रशस्त एवं प्रशस्त लेश्याओं के कर्कश-कोमल स्पर्श का तारतम्य पूर्ववत् जानना चाहिए। १. प्रज्ञापना पद १७ उ. ४ सू. २२७ २. उत्तरा (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र ३१९