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________________ ५७२ उत्तराध्ययनसूत्र लेश्या की श्रृंखला भी इसी लेश्या-परम्परा से सम्बन्धित है। लेश्या के अनुसार कर्मबन्ध होने से इसे कर्मलेश्या (कर्मविधायिका) लेश्या कहा गया है। * परिणामों की अशुभतम, अशुभतर और अशुभ, तथा शुभ, शुभतर और शुभतम धारा के अनुसार लेश्या भी छह प्रकार की बताई गई है—कृष्ण, नील, कापोत, तेजस् (पीत), पद्म और शुक्ल। वस्तुतः लेश्या में बाह्य और आन्तरिक दोनों जगत् एक दूसरे से प्रभावित होते हैं।२ * प्रस्तुत अध्ययन की गाथा २१ से ३२ तक छहों लेश्याओं के लक्षण बताए हैं। ये लक्षण मुख्यतया ___ मन के विविध अशुभ-शुभ परिणामों के आधार पर ही दिये गए हैं। * तत्पश्चात् स्थानद्वार के माध्यम से लेश्याओं की व्यापकता बताई गई है कि लेश्याओं के तारतम्य' ___ के आधार पर उनकी सूक्ष्म श्रेणियाँ कितनी हो सकती हैं? * इसे बाद लेश्याओं की स्थिति लेश्या के अधिकारी की दृष्टि से अंकित की गई है। इसके आगे ____ नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति की अपेक्षा से लेश्याओं की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति बताई गई * तदनन्तर दो कोटि की लेश्याएँ (३ अधर्मलेश्याएँ और ३ धर्मलेश्याएँ) बताकर उनसे दुर्गति____सुगति की प्राप्ति बताई गई है। * अन्त में कहा गया है—मृत्यु से अन्तर्मुहूर्त पूर्व दूसरे भव में जन्म लेने की लेश्या का तथा ____ अन्तर्मुहूर्त बाद भूतकालीन लेश्या का भाव रहता है। * परिणाम द्वार से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्य चाहे तो कृष्णादि अशुभतम-अशुभतर और अशुभ लेश्याएँ, शुभ, शुभतर और शुभतम रूप में परिणत हो सकती हैं, वर्णादि की दृष्टि से भी उनके पर्याय परिवर्तन हो जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि आत्मा के अध्यवसायों की विशुद्धि और अशुद्धि पर लेश्याओं की विशुद्धि और अशुद्धि निर्भर है। कषायों की मंदता से अध्यवसाय की शुद्धि होती है। और अन्तःशुद्धि होने पर बाह्य शुद्धि भी होती है। बाह्य दोष भी छूट जाते हैं। 00 १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६५० (ख) देखिये उत्तरा. अ. ३४ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शद्वार । (ग) उत्तरा अ. ३४ गा, १ २. देखिये-परिणामद्वार, गा. २० ३. देखिये-लक्षणाद्वार, गा. २१ से ३२ ४. देखिये-स्थानद्वार गाथा ३३ तथा स्थितिद्वार गा. ३४ से ५३ तक। ५. देखिये-गतिद्वार गा. ५६ से ५७ ६. देखिये-आयुष्यद्वार गा. ५८ से ६० ७. प्रज्ञापना पद १७ अ. ४० ८. (क) लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधीए होइ जणस्स। अज्झवसाणविसोधी मंदलेस्यायस्स णादव्वा॥ -मूलाराधना ७/१९११ (ख) अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः शुद्धि सम्पद्यते बहिः। बाह्यो हि शुद्ध्यते दोषः, सर्वोऽन्तरदोषतः॥ -मूलाराधना ७/१९६७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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