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________________ चौतीसवाँ अध्ययन लेश्या अध्ययन-सार * प्रस्तुत अध्ययन का नाम लेश्याध्ययन (लेसज्झयण) है। लेश्या का बोध कराने वाला अध्ययन ____ होने से इसका सार्थक नाम रखा गया है। व्यक्ति के जीवन का आन्तरिक एवं बाह्य निर्माण, उसके परिणामों, भावों, अध्यवसायों या मनोवत्तियों पर निर्भर करता है। जिस व्यक्ति के जैसे अध्यवसाय या परिणाम होते हैं, उसी के अनुसार उसके शरीर की कान्ति, छाया, प्रभा या आभा बनती है; उसी के अनुरूप उसके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श होते हैं; राग, द्वेष और कषायों की आन्तरिक परिणति भी उसके मनोभावों के अनुसार बन जाती है। उसकी शुभाशुभ विचारधारा अपने सजातीय विचाराणुओं को खींच लाती है। तदनुसार कर्मपरमाणुओं का संचय होता रहता है और अन्तिम समय में पूर्व प्रतिबद्ध संस्कारानुसार परिणति होती है, तदनुसार अन्तर्मुहूर्त में वैसी ही लेश्या वाले जीवों में, वैसी ही गति-योनि में वह जन्म लेता है। इसी को जैनदर्शन में लेश्या कहा गया है। आधुनिक मनोविज्ञान या भौतिक विज्ञान ने मानव-मस्तिष्क में स्फुरित होने वाले वैसे ही कषायों (क्रोधादिभावों) या मन-वचन-काया के शुभाशुभ परिणामों या व्यापारों से अनुरंजित होने वाले विचारों का प्रत्यक्षीकरण करने एवं तदनुरूप रंगों के चित्र लेने में सफलता प्राप्त करली है। * लेश्या की मुख्यतया चार परिभाषाएँ जैनशास्त्रों में मिलती हैं (१) मन आदि योगों से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति। (२) कषाय से अनुरंजित आत्मपरिणाम। (३) कर्मनिष्यन्द। (४) कर्मवर्गणा से निष्पन्न कर्मद्रव्यों की विधायिका।२ * इन चारों परिभाषाओं के अनुसार यह तो निश्चित है कि मन, वचन और काया की जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसी आत्मपरिणति या मनोवृत्ति बनती है। जैसी भी शुभाशुभ परिणति होती है, वैसी ही मन-वचन-काया की प्रवत्ति बनती जाती है। अतः जैसे-जैसे कष्णादि लेश्याओं के द्रव्य होते हैं, वैसे ही आत्मपरिणाम होते हैं। जैसे आत्मपरिणाम होते हैं, शरीर के छायारूप पुद्गल भी वैसे रंग, रस, गन्ध, स्पर्श वाले बन जाते हैं। इसका अर्थ है-बाह्य लेश्या के पुद्गल अन्तरंग (भाव) लेश्या को प्रभावित करते हैं। और अन्तरंग लेश्या के अनुसार बाह्य-लेश्या बनती है। भावी कर्मों १. (क) जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होई। -गोमट्ट जी. गा. ४९० (ख) देखिये—'अणु और आत्मा' ले. मदर जे. सी. ट्रस्ट (ग) लेशयति-श्लेषयति वात्मनि जनमनांसीति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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