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उत्तराध्ययनसूत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति इतनी (अन्तर्मुहूर्त) ही समझना चाहिए। जघन्यस्थिति नहीं; क्योंकि प्रज्ञापनासूत्र में सातावेदनीय की जघन्यस्थिति १२ मुहूर्त की और असातावेदनीय की जघन्यस्थिति सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण बताई गई है।
__ भाव की अपेक्षा से—कर्मों के रसविशेष (अनुभाग) कर्मों में अनुभावलक्षणरूप भाव सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं । तथा समस्त अनुभागों में प्रदेश-परिमाण समस्त भव्य-अभव्यजीवों से भी अनन्तगुणा अधिक है। यहाँ कर्मों के अनुभागबन्ध का निरूपण किया गया है।
बन्धनकाल में उसके कारणभूत काषायिक अध्यवसाय के तीव्रमन्दभाव के अनुसार प्रत्येककर्म में तीव्रमन्द फल देने की शक्ति उत्पन्न होती है। अतः विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देने का यह सामर्थ्य ही अनुभाव है और उसका निर्माण ही अनुभावबन्ध है। प्रत्येक अनुभावशक्ति उस-उस कर्म के स्वभावानुसार फल देती है। उपसंहार
२५. तम्हा एएसि कम्माणं अणुभागे वियाणिया।
एएसि संवरे चेव खवणे य जए बुहे ॥ –त्ति बेमि॥ __ [२५] इसलिए इन कर्मों के अनुभागों को जान कर बुद्धिमान् साधक इनका संवर और क्षय करने का प्रयत्न करे।
-ऐसा मैं कहता हूँ। ___ विवेचन–अनुभागों को जान कर ही संवर या निर्जरा का पुरुषार्थ—कर्मों के अनुभागों को जानने का अर्थ है—कौन-सा कर्म कितने काषायिक तीव्र मध्यम या मन्द भावों से बांधा गया है? कौन-सा कर्म किस-किस प्रकृति (स्वभाव) का है? उदाहरणार्थ-ज्ञानावरणीयकर्म का अनुभाव उस कर्म के स्वभावानुसार ही तीव्र या मन्द फल देता है, वह ज्ञान को ही आवृत करता है; दर्शन आदि को नहीं। फिर कर्म के स्वभावानुसार विपाक का नियम भी मूलप्रकृतियों पर ही लागू होता है, उत्तरप्रकृतियों पर नहीं। क्योंकि किसी भी कर्म की एक उत्तरप्रकृति बाद में अध्यवसाय के बल से उसी कर्म की दूसरी उत्तरप्रकृति के रूप में बदल सकती है। इसलिए पहले अनुभाग (कर्म विपाक) के स्वभाव एवं उसकी तीव्रता-मन्दता आदि जान लेना आवश्यक है, अन्यथा जिस कर्म का संवर या निर्जरा करना है, उसके बदले दूसरे का संवर या निर्जरा (क्षय) करने का व्यर्थ पुरुषार्थ होगा। अतः ज्ञानावरणीयादि कर्मों के प्रकृतिबन्ध आदि को कटुविपाक एवं भवहेतु वाले जान कर तत्त्वज्ञ व्यक्ति का कर्तव्य है कि इनका संवर और क्षय करे। ॥ तेतीसवाँ अध्ययन : कर्मप्रकृति समाप्त॥
000 १. उत्तरा. प्रियदर्शिनी, भा. ४, पृ.५९७ २. (क) वही, भा. ४, पृ. ६००, (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. ८/२२/२३ (पं. सुखलालजी) पृ. २०२ ३. (क) तत्त्वार्थसूत्र अ. ८/२२-२३-२४ (पं. सुखलालजी) पृ. २०२
(ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा, ४, पृ.६०१