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________________ ५६८ उत्तराध्ययनसूत्र इस प्रकार १२ गाथाओं (४ से १५ तक) में आठ कर्मों की उत्तरप्रकृतियों का निरूपण किया गया है। आठ मूल प्रकृतियों का उल्लेख इससे पूर्व किया जा चुका है। कर्मों के प्रदेशाग्र, क्षेत्र, काल और भाव १६. एयाओ मूलपयडीओ उत्तराओ य आहिया। पएसग्गं खेत्तकाले य भावं चादुत्तरं सुण॥ [१६] ये (पूर्वोक्त) कर्मों की मूल प्रकृतियाँ और उत्तर-प्रकृतियाँ कही गई हैं। अब इनके प्रदेशाग्र (-द्रव्य परमाणु-परिमाण), क्षेत्र, काल और भाव को सुनो। १७. सव्वेसिं चेव कम्माणं पएसग्गमणन्तगं। गण्ठिय-सत्ताईयं अन्तो सिद्धाण आहियं॥ [१७] (एक समय में ग्राह्य-बद्ध होने वाले) समस्त कर्मों का प्रदेशाग्र (कर्म-परमाणु-पुद्गलद्रव्य दलिक) अनन्त होता है। वह (अनन्त) परिमाण ग्रन्थिग (ग्रन्थिभेद न करने वाले अभव्य) जीवों से अनन्तगुणा अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग जितना कहा गया है। १८. सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं। सव्वेसु वि पएसेसु सव्वं सव्वेण बद्धगं॥ [१८] सभी जीव छह दिशाओं में रहे हुए (ज्ञानावरणीय आदि) (कर्मों) (कार्मणवर्गणा के पुद्गलों) को सम्यक् प्रकार से ग्रहण (बद्ध) करते हैं। वे सभी कर्म (-पुद्गल) (बन्ध के समय) आत्मा के समस्त प्रदेशों के साथ सर्व प्रकार से बद्ध हो जाते हैं। १९. उदहीसरिसनामाणं तीसई कोडिकोडिओ। उक्कोसिया ठिई होइ अन्तोमुहत्तं जहन्निया॥ [१९] (ज्ञानावरण आदि कर्मों की) उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। २०. आवरणिज्जाण दुण्हंपि वेयणिज तहेव य। __ अन्तराए य कम्मम्मि ठिई एसा वियाहिया॥ [२०] (यह पूर्वगाथा में कथित स्थिति) दो आवरणीय कर्मों (अर्थात् ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय) की तथा वेदनीय और अन्तराय कर्म की जाननी चाहिए। २१. उदहीसरिसनामाणं सत्तर कोडिकोडिओ। मोहणिजस्स उक्कोसा अन्तोमुहुत्तं जहनिया॥ [२१] मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। २२. तेत्तीस सागरोवमा उक्कोसेण वियाहिया। ठिई उ आउकम्मस्स अन्तोमुहत्तं जहन्निया॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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