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तेतीसवाँ अध्ययन : कर्मप्रकृति
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बन्धहेतु हैं। और सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप, ये देवायु के बन्धहेतु हैं।
नामकर्म : प्रकार और स्वरूप-नामकर्म दो प्रकार का है-शभनामकर्म और अशभनामकर्म । योगों की वक्रता और विसंवाद अशभ नामकर्म के हेत हैं। और इनसे विपरीत योगों की अवक्रता और अविसंवाद शभ नामकर्म के बन्धहेत हैं। मध्यम विवक्षा से शभ और अशभ नामकर्म के प्रत्येक के क्रमशः ३७ और ३४ भेद कहे गए हैं। यों उत्तर भेदों की उत्कृष्ट विवक्षा से प्रत्येक के अनन्त भेद हो सकते हैं। इनमें तीर्थंकर नामकर्म के २० बन्ध हेतु हैं।२ ___ गोत्रकर्म : प्रकार और स्वरूप-गोत्रकर्म दो प्रकार का है—उच्चगोत्र और नीचगोत्र । जातिमर आदि आठ प्रकार का मद न करने से उच्चगोत्र का बन्ध होता है और जातिमद आदि आठ प्रकार का मद करने से नीचगोत्र का। तत्त्वार्थसूत्र में—परनिन्दा, आत्मप्रशंसा दूसरे के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन, इन्हें नीचगोत्र कर्म के बन्ध हेतु कहा गया है, तथा इनके विपरीत परप्रशंसा, आत्मनिन्दा आदि तथा नम्रवृत्ति और निरभिमानता, ये उच्चगोत्रकर्म के बन्धहेतु कहे गए हैं।३।।
अन्तरायकर्म : प्रकार और स्वरूप-अन्तरायकर्म के पांच भेद हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। दानादि में विघ्न डालना, ये दानादि पांचों के कर्मबन्ध के हेतु हैं। पात्र तथा देय वस्तु होते हुए तथा दान का फल जानते हुए भी दान देने की इच्छा (प्रवृत्ति) न होना, दानान्तराय है । उदारहृदय दाता तथा याचनाकुशल याचक होते हुए भी याचक को लाभ न होना, लाभान्तराय है। आहारादि भोग्य वस्तु होते हुए भी भोग न सकना, भोगान्तराय है। वस्त्रादि उपभोग्य वस्तु होते हुए भी उपभोग न कर सकना। उपभोगान्तराय है, शरीर नीरोग और युवा होते हुए एक तिनके को भी मोड़ (तोड़) न सकना, वीर्यान्तराय है। १. (क) 'बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः।' (ख) 'माया तैर्यग्योनस्य।
(ग) 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य।' (घ) 'सरागसंयम-संयमासंयमाकामनिर्जरा-बालतपांसि दैवस्य।' -तत्त्वार्थ अ.६/१६ से २० तक (क) योगवक्रता विसंवाहनं चाशुभस्य नाम्नः। (ख) तद्विपरीतं शुभस्य। (ग)निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम्। (घ) दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता...............तीर्थकृत्वस्य। -तत्त्वार्थसूत्र ६/२१ से २३ तक (ङ) शुभनाम कर्म के ३७ भेद-१-मनुष्य, २-देवगति, ३-पंचेन्द्रिय जाति, ४-८-औदारिकादि पांच शरीर, ९
११-प्राथमिक तीन शरीरों के अंगोपांग, १२-१५-प्रशस्त वर्णादि चार, १६-प्रथम संस्थान, १७-प्रथम संहनन, १८-मनुष्यानुपूर्वी, १९-देवानुपूर्वी, २०-अगुरुलघु, २१-पराघात, २२-आतप, २३-उद्योत, २४-उच्छ्वास, २५-प्रशस्त विहायोगति, २६-त्रस, २७-बादर, २८-पर्याप्त, २९-प्रत्येक, ३०-स्थिर, ३१-शुभ, ३२-सुभग, ३३-सुस्वर, ३४- आदेय, ३५-यशोकीर्ति, ३६-निर्माण और ३७-तीर्थंकरनामकर्म। अशुभनामकर्म के ३४ भेद-१-२-नरक-तिर्यञ्चगति, ३-६-एकेन्द्रियादि, ४-जाति, ७-११-प्रथम को छोड़ कर शेष ५ संहनन, १२-१६-प्रथम को छोड़ कर शेष ५ संस्थान, १७-२०-अप्रशस्त वर्णादि चार, २१
२२-नरक-तिर्यंचानुपूर्वी, २३-उपघात, २४-अप्रशस्तविहायोगति, २५-३४-स्थावरदशक। (छ) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. ५८८-५८९ ३. (क) परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।
(ख) तविपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य। -तत्त्वार्थसूत्र ६/२४-२५ ४. (क) 'विघ्नकरणमन्तरायस्स।'–तत्त्वार्थ अ-६/२६ (ख) उत्तरा (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र ३१३-३१४