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समीक्षात्मक अध्ययन/६५ अन्धककुल के नेता समुद्रविजय के अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि ये चार पुत्र थे। वासुदेव श्रीकृष्ण आदि अंधकवृष्णिकुल के नेता वसुदेव के पुत्र थे। वैदिक-साहित्य में इनकी वंशावली पृथक् रूप से मिलती है।२१६ इस अध्ययन में भोज, अन्धक और वृष्णि इन तीन कुलों का उल्लेख हुआ है। भोजराज शब्द राजीमती के पिता समुद्रविजय के लिए प्रयुक्त हुआ है। वासुदेव श्रीकृष्ण का अरिष्टनेमि के साथ अत्यन्त निकट का सम्बन्ध था। वे अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे। उन्होंने राजीमती को दीक्षा ग्रहण करते समय जो आशीर्वाद दिया था वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है और साथ ही श्रीकृष्ण के हृदय की धार्मिक भावना का भी प्रतीक है। वह आशीर्वाद इस प्रकार से है-संसारसागरं घोरं, तर कन्ने! लहुं लहं।" हे कन्ये! तू घोर संसार-सागर को शीघ्रता से पार कर।२१७
इस अध्ययन की सबसे बड़ी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि पथभ्रष्ट पुरुष को नारी सही मार्ग पर लाती है। उसका नारायणी रूप इसमें उजागर हुआ है। नारी वासना की दास नहीं, किन्तु उपासना की ओर बढ़ने वाली पवित्र प्रेरणा की स्रोत भी है। जब वह साधना के पथ पर बढ़ती है तो उसके कदम आगे से आगे बढ़ते ही चले जाते हैं। वह अपने लक्ष्य पर बढ़ना भी जानती है।
समस्याएँ और समाधान
तेवीसवें अध्ययन में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के तेजस्वी नक्षत्र केशीकुमार श्रमण और भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम का ऐतिहासिक संवाद है। भगवान् पार्श्व तेवीसवें तीर्थंकर थे। भगवान् महावीर ने 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग पार्श्वनाथ के लिए किया है। यह उनके प्रति आदर का सूचक है। भगवान् पार्श्व के हजारों शिष्य भगवान् महावीर के समय विद्यमान थे। भगवती में 'कालास्यवैशिकी २१८ अनगार, गांगेय' अनगार२१९ तथा अन्य अनेक स्थविर २२० और सूत्रकृतांग२२१ में 'उदकपेढाल' आदि पार्थापत्य श्रमणों ने भगवान् महावीर के शासन को स्वीकार किया था। प्रस्तुत अध्ययन में पार्थापत्य श्रमणों में और भगवान् महावीर के श्रमणों में जिन बातों को लेकर अन्तर था, उसका निरूपण है। यह निरूपण ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस अन्तर का मूल कारण भी गणधर गौतम ने केशीकुमार श्रमण को बताया है। प्रथम तीर्थंकर के श्रमण ऋजु और जड़ थे। अन्तिम तीर्थंकर के श्रमण वक्र और जड़ होते हैं और मध्यवर्ती बावीस तीर्थंकरों के श्रमण ऋजु और प्राज्ञ थे। प्रथम तीर्थंकर के श्रमणों के लिए आचार को पूर्ण रूप से समझ पाना कठिन था। चरम तीर्थंकर के श्रमणों के लिए आचार का पालन करना कठिन है। किन्तु मध्यवर्ती तीर्थंकरों के श्रमण उसे यथावत् समझने और सरलता से उसका पालन करते थे। इन्हीं कारणों से आचार के दो रूप हुए हैं- चातुर्याम धर्म और पंचयाम धर्म । केशीश्रमण की इस जिज्ञासा पर कि एक ही प्रयोजन के लिए अभिनिष्क्रमण करने वाले श्रमणों के वेश में यह विचित्रता क्यों है? एक रंग-बिरंगे बहुमूल्य वस्त्रों को धारण करते हैं और एक अल्प मूल्य वाले श्वेत वस्त्रधारी हैं। गणधर गौतम ने समाधान करते हुए कहा-मोक्ष की साधना का मूल ज्ञान, दर्शन
और चारित्र है। वेश तो बाह्य उपकरण है, जिससे लोगों को यह ज्ञात हो सके कि ये साधु हैं। मैं साधु हूँ' इस प्रकार ध्यान रखने के लिए ही वेष है। सचेल परम्परा के स्थान पर अचेल परम्परा का यही उद्देश्य है। यहाँ पर अचेल का अर्थ अल्पवस्त्र है। २१६. (क) देखिए-लेखक का 'भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयागी श्रीकृष्ण : एक अनुशीलन'
(ख) एशिएण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडीशन, पृष्ठ १०४-१०७ पारजीटर २१७. उत्तराध्ययन २२-३१ २१८. भगवतीसूत्र १/९. २१९. भगवतीसूत्र ९/३२. २२०. भगवतीसूत्र ५/९. २२१. सूत्रकृतांग २७.