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बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान
५५९ [१००] इस प्रकार इन्द्रिय और मन के जो विषय रागी मनुष्य के लिए दुःख के हेतु हैं, वे ही (विषय) वीतराग के लिए कदापि किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते।
१०१. न कामभोगा समयं उवेन्ति न यावि भोगा विगई उवेन्ति।
जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥ [१०१] कामभोग न समता (समभाव) उत्पन्न करते हैं और न विकृति पैदा करते हैं। उनके प्रति जो द्वेष और ममत्व रखता है, उनमें मोह के कारण वही विकृति को प्राप्त होता है।
१०२. कोहं च माणं च तहेव मायं लाहं दुगुंछं अरइं रइं च।
हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं नपुंसवेयं विविहे य भावे॥ । [१०२] क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद तथा (हर्ष, विषाद आदि) विविध भावों को
१०३. आवज्जई एवमणेगरूवे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो।
अन्ने य एयप्पभवे विसेसे कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से॥ [१०३] अनेक प्रकार के विकारों को तथा उनसे उत्पन्न अन्य अनेक कुपरिणामों को वह प्राप्त होता है, जो कामगुणों में आसक्त है और वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय होता है।
विवेचन--शंका : समाधान—प्रस्तुत ४ गाथाओं में पुनरुक्ति करके भी शिष्य की इन शंकाओं का समाधान किया है-(१) इन्द्रिय और मन के विषयों के विद्यमान रहते मनुष्य को वीतरागता तथा तज्जनित दु:खमुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? (२) कामभोगों के रहते भी मनुष्य वीतराग, विकृतिरहित तथा दुःखमुक्त कैसे हो सकता है? समाधान यह है कि (३) रागी मनुष्य के लिए इन्द्रियों और मन के विषय दुःख के हेतु हैं, वीतरागी के लिए नहीं, (४) कामभोगों के प्रति भी जो राग-द्वेष, मोह करते हैं, उनके लिए वे विकृतिकारीदुःखोत्पादक हैं। अर्थात् कामासक्त मानव को ही कषाय-नोकषाय आदि विकृतियाँ घेरती हैं। जो कामभोगों के प्रति राग-द्वेष-मोह नहीं करते, उन वीतराग पुरुषों को ये विकृतियाँ नहीं घेरती, न ही दुःख प्राप्त होता है।
तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय के विषय तो बाह्य निमित्त मात्र बनते हैं। वस्तुतः दुःख का मूल कारण तो आत्मा की रागद्वेषमयी मनोवृत्तियाँ ही हैं। राग-द्वेषविहीन मुनि का इन्द्रिय विषय लेश-मात्र भी बिगाड़ नहीं कर सकते। रागद्वेषादि विकारों के प्रवेश-स्रोतों से सावधान रहे
१०४. कप्पं न इच्छिज सहायलिच्छू पच्छाणुतावेण तवप्पभावं।
एवं वियारे अमियप्पयारे आवजई इन्दियचोरवस्से॥ ___ [१०४] (शरीर की सेवा-शुश्रूषारूप) सहायता की लिप्सा से कल्पयोग शिष्य की भी इच्छा न करे। (दीक्षा लेने के) पश्चात् पश्चात्ताप आदि करके तप के प्रभाव की भी इच्छा न करे। इस प्रकार की १. उत्तराध्ययन (गुजराती भाषान्तर भावनगर), पत्र ३०६-३०७