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________________ ५५८ उत्तराध्ययनसूत्र [९५] भाव और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से अभिभूत होकर वह दूसरे भावों (मनोज्ञसद्भावों) का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसमें कपटप्रधान असत्य बढ़ता है। फिर भी (कपटप्रधान असत्य को अपनाने पर भी) वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता। ९६. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुहीं दुरन्ते। एवं अदत्ताणि समयायन्तो भावे अतित्तो दुहिणो अणिस्सो॥ _[९६] असत्यप्रयोग. के पूर्व एवं पश्चात् तथा असत्यप्रयोग काल में भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप होता है। इस प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी करता है, दु:खी और आश्रयहीन हो जाता है। ९७. भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि। तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं॥ [९७] इस प्रकार (मनोज्ञ) भावों में अनुरक्त मनुष्य को कभी और कुछ भी सुख कहाँ से हो सकता है? जिस (मनोज्ञ भाव को पाने) के लिए वह दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी तो क्लेश और दुःख ही होता है। ९८. एमेव भावम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। __पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ [९८] इसी प्रकार (जो अमनोज्ञ) भाव के प्रति द्वेष करता है, वह भी (उत्तरोत्तर) दुःखों की परम्परा को पाता है। द्वेषयुक्त चित्त से वह जिन (पाप-) कर्मों को संचित करता है, वे (पापकर्म) ही विपाक के समय में दुःखरूप बनते हैं। __ ९९. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पई भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ [९९] अतः (मनोज्ञ-अमनोज्ञ) भाव से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी इन (पूर्वोक्त) दुःखों की परम्परा से (वैसे ही) लिप्त नहीं होता है, जैसे (जलाशय में) कमलिनी का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। विवेचन–मनोज्ञ-अमनोज्ञ भावों के प्रति वीतरागता–प्रस्तुत १३ गाथाओं (८७ से ९९ तक) में मन के द्वारा किसी घटना या पदार्थ के निमित्त से उठने वाले राग और द्वेष के भावों के प्रति वीतरागता का पाठ पढाया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी पदार्थ, घटना या विचार के साथ मन में उठने वाले मनोज्ञ या अमनोज्ञ भाव को मत जोडो, अन्यथा रागद्वेष पैदा होगा, मन दुःखी, संक्लिष्ट और तनाव से परिपूर्ण हो जाएगा, भय, पीड़ा, संताप आदि अशुभ कर्म-बन्धक भाव आ जाने से दुःखों की परम्परा बढ़ जाएगी। अतः सर्वत्र वीतरागता को ही दुःखमुक्ति या सर्वसुखप्राप्ति के लिए अपनाना उचित है। रागी के लिए ही ये दुःख के कारण, वीतरागी के लिए नहीं १००. एविन्दियत्था य मणस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पिकयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेन्ति किंचि॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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