SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 656
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान ५५७ ८८. भावस्स मणं गहणं वयन्ति मणस्स भावं गहणं वयन्ति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुनमाहु॥ [८८] मन भाव का ग्राहक है, और भाव मन का ग्राह्य (विषय) है। जो राग का हेतु है, उसे 'समनोज्ञ' (भाव) कहते हैं और जो द्वेष का हेतु है, उसे अमनोज्ञ (भाव) कहते हैं। ८९. भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे करेणुमग्गावहिए व नागे॥ [८९] जो मनोज्ञ भावों में तीव्र आसक्ति रखता है, वह अकाल में (वैसे) ही विनाश को प्राप्त होता है—जैसे हथिनी के प्रति आकृष्ट कामगुणों में आसक्त हाथी (विनाश को प्राप्त होता है।). ९०. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। ___ दुइन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि भावं अवरज्झई से॥ [९०] (इसी तरह) जो (अमनोज्ञ भावों के प्रति) तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दमनीय द्वेष के कारण दुःखी होता है। इसमें भाव का कोई अपराध नहीं है। ९१. एगन्तरत्ते रुइरंसि भावे अतालिसे से कुणई पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ [९१] जो मनुष्य मनोज्ञ (प्रिय एवं रुचिकर) भाव में एकान्त आसक्त होता है, तथा इसके विपरीत अमनोज्ञ भाव के प्रति द्वेष करता है, वह अज्ञानी, दुःखजनित पीड़ा (अथवा दुःखपिण्ड) को प्राप्त होता है। विरागी मुनि इस कारण उन (दोनों) में लिप्त नहीं होता। ९२. भावाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे। __ चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तगुरू किलिढे॥ [९२] मनोज्ञ भावों की आशा के पीछे दौड़नेवाला व्यक्ति अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों का घात करता है। अपने ही स्वार्थ को महत्त्व देने वाला वह क्लिष्ट अज्ञानी जीव उन्हें अनेक प्रकार से परिताप देता है और पीडा पहुंचाता है। ९३. भावाणवाण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसत्रिओगे। वए विओगेय कहिं सहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥ [९३] प्रिय भाव में अनुराग और ममत्व के कारण, उसके उत्पादन, सुरक्षण, सन्नियोग व्यय और वियोग में उसे सुख कैसे हो सकता है? उसे तो उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती! ९४. भावे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढ़ि। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं॥ [९४] भाव में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त-उपसक्त व्यक्ति सन्तोष नहीं पाता। वह असन्तोष के दोष से दुःखी तथा लोभग्रस्त होकर दूसरों की वस्तु चुराता है। ९५. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो भावे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से॥ जाता है।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy