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________________ ५६० उत्तराध्ययनसूत्र इच्छाओं से इन्द्रियरूपी चोरों के वशीभूत होकर साधक अनेक प्रकार के अपरिमित विकारों (-दोषों) को प्राप्त कर लेता है । १०५. तओ से जायन्ति पओयणाइं निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि । सुसिणो दुक्खविणोयणट्ठा तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ॥ [१०५] (पूर्वोक्त कषाय- नोकषायादि) विकारों के प्राप्त होने के पश्चात् सुखाभिलाषी (इन्द्रियचोर - वशीभूत) उस व्यक्ति को मोहरूपी महासागर में डुबाने के लिए (अपने माने हुए तथाकथित कल्पित) दु:खों के विनाश के लिए (विषयसेवन, हिंसा आदि) अनेक प्रयोजन उपस्थित होते हैं। इस कारण वह (स्वकल्पित दुःखनिवारणोपाय हेतु) उन (विषयसेवनादि) के निमित्त से रागी (और उपलक्षण से द्वेषी) होकर प्रयत्न करता है। विवेचन - रागी व्यक्ति का विपरीत प्रयत्न — असावधान साधक राग-द्वेष से मुक्ति के लिए संयमी जीवन अंगीकार करने के बाद भी किस प्रकार पुनः राग-द्वेष एवं कषायादि विकारों की पकड़ में फँस जाता है तथा रागद्वेषयुक्त होने के बदले विषयसेवनादि कामभोगों के राग में फँस कर दुःख पाता है, इसे ही इन दो गाथाओं में बतलाया गया है । (१) शरीर और इन्द्रियजनित सुखों की अभिलाषा से प्रेरित होकर वह शिष्य बनाता है, (२) दीक्षित हो जाने के बाद पश्चात्ताप करता है कि हाय ! मैंने ऐसे कष्टों को क्यों अपनाया? इस दृष्टि से वह तपस्या का सौदा करके कामभोगादि की वांछा एवं निदान कर लेता है । (३) इस प्रकार इन्द्रिय- चोरों के प्रवेश के साथ-साथ उसके जीवन में कषाय एवं नोकषायादि विकार मोहसमुद्र में उसे डुबो देते हैं । (४) फिर वह अपने कल्पित दुःखों के निवारणार्थ रागी बन का विषय - सुखों में तथा उनकी प्राप्ति के लिए हिंसादि में प्रवृत्त होकर दुःखमुक्ति के बदले नाना दुःखों को न्यौता दे देता है। अपने ही संकल्प-विकल्प : दोषों के हेतु १०६. विरज्जमाणस्स य इन्दियत्था सद्दाइया तावइयप्पगारा । न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा निव्वत्तयन्ती अमणुन्नयं वा ॥ [१०६] इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि विषयों के प्रकार हैं, वे सभी विरक्त व्यक्ति के मन में मनोज्ञता या अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते । १०७. एवं ससंकष्पविकप्पणासुं संजायई समयमुवट्ठियस्स । अत्थे य संकप्पयओ तओ से पहीयए कामगुणेसु तन्हा ॥ [१०७] (व्यक्ति के) अपने ही संकल्प - ( राग-द्वेष - मोहरूप अध्यवसाय) - विकल्प सब दोषों के कारण हैं, इन्द्रियों के विषय (अर्थ) नहीं, ऐसा जो संकल्प करता है, उस (के मन में समता उत्पन्न होती है और उस (समता) से (उसकी ) कामगुणों की तृष्णा क्षीण हो जाती है। विवेचन — वीतरागता या समता ही रागद्वेषादि निवारण का हेतु — प्रस्तुत दो गाथाओं में निष्कर्ष बता दिया है— रागद्वेषादि के कारण इन्द्रियविषय नहीं, अपितु व्यक्ति के अपने ही मनोज्ञता - अमनोज्ञता या रागद्वेष के संकल्प ही कारण हैं। यदि व्यक्ति में विरक्ति या समता जागृत हो जाए तो शब्दादि विषय या कामभोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उसके तृष्णा, राग-द्वेषादि विकार क्षीण हो जाते हैं।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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