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बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान
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___ [७५] काय स्पर्श का ग्राहक है और स्पर्श काय का ग्राह्य विषय है। जो राग का हेतु है, उसे समनोज्ञ कहा गया है और जो द्वेष का हेतु है, उसे अमनोज्ञ कहा गया है।
७६. फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं।
रागाउरे सीयजलावसने गाहग्गहीए महिसे व ऽरन्ने॥ [७७] जो (मनोज्ञ) स्पर्शों में तीव्र आसक्ति रखता है, वह अकाल में ही (इसी तरह) विनाश को प्राप्त हो जाता है—जिस तरह अरण्य में जलाशय के शीतल जल के स्पर्श में आसक्त रागातुर भैंसा ग्राहमगरमच्छ के द्वारा पकड़ा जा कर विनाश को प्राप्त होता है।
७७. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणं से उ उवेइ दुक्खं।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि फासं अवरज्झई से॥ [७७] जो (अमनोज्ञ) स्पर्श के प्रति तीव्र द्वेष रखता है, वह जीव भी तत्क्षण अपने दुर्दम द्वेष के कारण दुःख पाता है। इसमें स्पर्श का कोई अपराध नहीं है।
७८. एगन्तरत्ते रुइरंसि फासे अतालिसे से कुणई पओसं।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ [७८] जो मनोरम स्पर्श में अत्यन्त आसक्त होता है, तथा अमनोरम स्पर्श के प्रति प्रद्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक पीडा (या दुःख के पिण्ड) को प्राप्त होता है। इसीलिए विरागी मुनि इसमें (मनोज्ञअमनोज्ञ स्पर्श में) लिप्त नहीं होता।
७९. फासाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्टे॥ [७९] (मनोज्ञ) स्पर्श की कामना के पीछे चलनेवाला, अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों का वध करता है, वह अपने स्वार्थ को ही महत्त्व देनेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें संतप्त करता है और पीड़ा पहुँचाता है।
८०. फासाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे।
वए विओगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥ [८०] स्पर्श में अनुराग और ममत्व (परिग्रहण) के कारण उसके उत्पादन, संरक्षण एवं सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग होने पर उसे सुख कैसे हो सकता है ? उसे तो उपभोगकाल में भी अतृप्ति ही मिलती है।
८१. फासे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढ़ि।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं॥ __ [८१] स्पर्श में अतृप्त एवं उसके परिग्रह में आसक्त-उपसक्त व्यक्ति संतोष नहीं पाता। असंतोष के दोष के कारण वह दुःखी तथा लोभग्रस्त होकर दूसरों के (सुखद स्पर्शजनक) पदार्थ चुराता है।
८२. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो फासे अतित्तस्स परिग्गहे य।
मायामुसं वड्डइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से॥