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________________ ५५४ उत्तराध्ययनसूत्र ७०. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दूरन्ते। एवं अदत्ताणि समाययन्तो रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥ [७०] असत्य-प्रयोग से पूर्व और पश्चात् तथा उसके प्रयोगकाल में भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी बुरा होता है। इस प्रकार रस में अतृप्त होकर चोरी करने वाला वह दुःखित और आश्रयरहित हो जाता है। ७१. रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सहं होज कयाइ किंचि?। तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं॥ [७१] इस प्रकार (मनोज्ञ) रस में अनुरक्त पुरुष को कदाचित् भी, कुछ भी सुख कहाँ से हो सकता है ? जिसे पाने के लिये व्यक्ति दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी (उसे) क्लेश और दुःख ही होता है। ७२. एमेव रसम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ [७२] इसी प्रकार (अमनोज्ञ) रस के प्रति द्वेष रखने वाला व्यक्ति उत्तरोत्तर दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। वह द्वेषग्रस्त चित्त से जिन (पाप-) कर्मों का संचय करता है, वे ही विपाक के समय दुःख रूप बन जाते हैं। ७३. रसे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पई भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ [७३] रस से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी इस दुःख-समूह की परम्परा से लिप्त नहीं होता—जैसे कि (जलाशय में) कमलिनी का पत्ता जल से (लिप्त नहीं होता)। विवेचन–रसों के प्रति वीतरागता की त्रयोदशसूत्री-६१ से ७३ तक तेरह गाथाओं में शास्त्रकार ने विविध पहलुओं से मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों के प्रति रागद्वेष से मुक्त रहने का उपदेश दिया है, लक्ष्य वही सर्वथा सुखप्राप्ति एवं सर्व दुःखमुक्ति है। भाव एवं शब्दावली प्रायः समान है। मनोज्ञ-अमनोज्ञ-स्पर्शों के प्रति रागद्वेषमुक्ति का उपदेश ___७४. कायस्स फासं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। ___ तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसुस वीयरागो॥ __ [७४] काय के ग्राह्य विषय को स्पर्श कहते हैं। जो स्पर्श राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो स्पर्श द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। जो इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों) में सम. (राग-द्वेष से दूर) रहता है, वह वीतराग है। ७५. फासस्स कायं गहणं वयन्ति कायस्स फासं गहणं वयन्ति। रागस्स हेउं समणुनमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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