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________________ बत्तीसवाँ अध्ययन. : प्रमादस्थान ५४९ [४०] मनोज्ञ शब्द की आशा (स्पृहा) का अनुसरण करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के चराचर (त्रस-स्थावर) जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को मुख्यता देने वाला क्लिष्ट (रागादिबाधित) अज्ञानी नाना प्रकार से उन (चराचर) जीवों को परिताप देता और पीड़ा पहुँचाता है। ४१. सद्दाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खण-सन्निओगे। वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥ [४१] शब्द में अनुराग और परिग्रह (ममत्वबुद्धि) के कारण उसके उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा उसके व्यय और वियोग में, उसको सुख कहाँ ? उसे उपभोगकाल में भी अतृप्ति ही मिलती है। ४२. सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढ़ि। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं॥ [४२] शब्द में अतृप्त, और उसके परिग्रहण (ममत्वपूर्वक ग्रहण-संग्रहण) में जो आसक्त और उपसक्त (गाढ आसक्त) होता है, उस व्यक्ति को संतोष प्राप्त नहीं होता। असंतोष के दोष से दुःखी एवं लोभाविष्ट मनुष्य दूसरे की शब्दवान् वस्तुएँ बिना दिए ग्रहण कर लेता है। ४३. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से॥ [४३] शब्द और उसके परिग्रहण में अतृप्त, तथा तृष्णा से अभिभूत व्यक्ति (दूसरे की) बिना दी हुई (शब्दवान्) वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका मायासहित झूठ बढ़ता है। ऐसा (कपट प्रधान असत्य का प्रयोग) करने पर भी वह दुःख से विमुक्त नहीं होता। ४४. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरन्ते। एवं अदत्ताणि समाययन्तो सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥ [४४] असत्याचरण के पहले और पीछे तथा प्रयोगकाल अर्थात् बोलने के समय भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप होता है। इसी प्रकार शब्द में अतृप्त व्यक्ति चोरी करता हुआ दुःखित और आश्रयहीन हो जाता है। ४५. सद्दाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होजकयाइ किंचि ?। तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं॥ [४५] इस प्रकार शब्द में अनुरक्त व्यक्ति को कदाचित् कुछ भी सुख कहाँ से होगा ? अर्थात् कभी भी किञ्चित् भी सुख नहीं होता। जिस (मनोज्ञ शब्द) को पाने के लिए व्यक्ति दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी अतृप्ति का क्लेश और दुःख ही रहता है। ४६. एमेव सद्दम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ ___ [४६] इसी प्रकार जो (अमनोज्ञ) शब्द के प्रति द्वेष करता है, वह भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से वह जिन कर्मों का संचय करता है, वे ही पुनः विपाक
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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