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________________ ५५० उत्तराध्ययनसूत्र (फलभोग) के समय में दुःख के कारण बनते हैं। ४७. सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पए भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ [४७] शब्द से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी इस दुःख-समूह की परम्परा से उसी तरह लिप्त नहीं होता, जिस तरह कमलिनी का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। विवेचनशब्द के प्रति त्रयोदश सूत्री वीतरागता का निर्देश-गाथा ३५ से ४७ तक तेरह गाथाओं में रूप की तरह शब्द के प्रति रागद्वेष से मुक्त होने का निर्देश किया गया है। गाथाएँ प्रायः समान हैं। 'रूप' के स्थान में 'शब्द' और 'चक्षु' के स्थान पर 'श्रोत्र' का प्रयोग किया गया है। हरिणमिगे- 'हरिण' और 'मृग' ये दोनों शब्द समानार्थक हैं, तथापि मृग शब्द अनेकार्थक होने से यहाँ उसे 'पशु' अर्थ में समझना चाहिए। मृग शब्द के अर्थ होते हैं—पशु, मृगशीर्षनक्षत्र, हाथी की एक जाति, हरिण आदि। मनोज्ञ-अमनोज्ञ गन्ध के प्रति राग-द्वेष मुक्त रहने का निर्देश ४८. घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो॥ [४८] घ्राण (नासिका) के ग्राह्य विषय को गन्ध कहते हैं, जो गन्ध राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं, और जो गन्ध द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। जो इन दोनों में सम (न रागी है, न द्वेषी) है उसे वीतराग कहते हैं। ४९. गन्धस्स घाणं गहणं वयन्ति घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति। रागस्स हेउं समणुनमाहु दोसस्स हेउं अमहणुन्नमाहु॥ [४९] घ्राण को गन्ध का ग्राहक कहते हैं, और गन्ध को घ्राण का ग्राह्य-विषय कहते हैं। जो राग का कारण है, उसे समनोज्ञ कहते हैं, तथा जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। ५०. गन्धेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे ओसहिगन्धगिद्धे सप्पे बिलाओ विव निक्खमन्ते॥ [५०] जो मनोज्ञ गन्धों में तीव्र आसक्ति रखता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे ओषधि की गन्ध में आसक्त रागातुर सर्प बिल से निकल कर विनाश को प्राप्त होता है। ५१. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि गन्धं अवरज्झई से॥ [५१] जो अमनोज्ञ गन्धों के प्रति तीव्र द्वेष रखता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष के कारण दुःख पाता है। इसमें गन्ध उसका कुछ भी अपराध नहीं करता। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६३४ : मृगः सर्वोऽपि पशुरुच्यते, यदुक्तं-मृगशीर्षे हस्तिजाती मृगः पशुकुरङ्गयोः।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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