________________
५४८
उत्तराध्ययनसूत्र रूप के प्रति रागद्वेषवश वह अनेक पापकर्मों का उपार्जन करके फलभोग के समय नाना दुःख उठाता है, जन्म-मरण की परम्परा बढ़ाता है। यही गाथा २७ से ३३ तक का निष्कर्ष है।
__ विरक्त ही दुःख-शोकरहित एवं अलिप्त—जो रूप के प्रति राग या द्वेष नहीं करता, वह न यहाँ शोक या दुःख से ग्रस्त होता है, और न परलोक में ही। क्योंकि वह जन्म-मरणादि रूप दुःख की परम्परा को बढ़ाता नहीं है। मनोज्ञ-अमोनोज्ञ शब्दों के प्रति रागद्वेष-मुक्त रहने का निर्देश
३५. सोयस्स सदं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु।
तं दोसहेउं अमणुनमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो। [३५] श्रोत्र के ग्राह्य विषय को शब्द कहते हैं, जो (शब्द) राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है, और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों) में सम रहता है, वह वीतराग है।
३६. सदस्स सोयं गहणं वयन्ति सोयस्स सदं गहणं वयन्ति।
__ रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुनमाहु॥ [३६] श्रोत्र को शब्द का ग्राहक कहते हैं, और शब्द श्रोत्र का ग्राह्यविषय है। जो राग का कारण है, उसे समनोज्ञ कहा है, और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहा है।
३७. सद्देस जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं।
रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चुं॥ [३७] जो (मनोज्ञ) शब्दों के प्रति तीव्र आसक्ति रखता है, वह रागातुर अकाल में वैसे ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे शब्द में अतृप्त रागातुर मुग्ध हरिण—मृग मृत्यु को प्राप्त होता है।
३८. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि सदं अवरज्झई से॥ [३८] (इसी तरह) जो (अमनोज्ञ शब्दों के प्रति) तीव्र द्वेष करता है, वह प्राणी उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष के कारण दुःख पाता है। (इसमें) शब्द का कोई अपराध नहीं है।
३९. एगन्तरत्ते रुइरंसि सद्दे अतालिसे से कुणई पओसं।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ [३९] जो रुचिर (मनोज्ञ) शब्द में एकान्त रक्त (आसक्त) होता है, और अतादृश (-अमनोज्ञ) शब्द में प्रद्वेष करता है, वह मूढ़ दुःखसमूह को प्राप्त होता है। इस कारण विरक्त मुनि उनमें (मनोज्ञअमनोज्ञ शब्द में) लिप्त नहीं होता।
४०. सद्दाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे।
चित्तेहि ते परियावेइ बाले पीलेइ अत्तगुरू किलिटे॥ १. उत्तरा, मूलपाठ तथा बृहद्वृत्ति, अ.३२, गा. २७ से ३३ तक, पत्र ६३०-६३१ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६३१ का सारांश