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________________ ५४७ बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान ३४. रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पए भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ [३४] रूप में विरक्त (उपलक्षण से द्वेषरहित) मनुष्य (राग-द्वेषरूप कारण के अभाव में) शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी दुःख-समूह की परम्परा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार जलाशय में रहता हुआ भी कमलिनी का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। विवेचन–समाहिकामे-प्रसंगवश 'समाधिकाम' शब्द का आशय है—जो श्रमण रागद्वेषादि का उन्मूलन करना चाहता है; क्योंकि समाधि का अर्थ है—चित्त की एकाग्रता या स्वस्थता, वह रागद्वेषादि के रहते हो नहीं सकती। न.....मणं पि कज्जा : फलितार्थ-प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि मनोज्ञ विषयों के प्रति भाव न करे और अमनोज्ञ के प्रति मन भी न करे। इसका तात्पर्य यह है कि मनोज्ञ के प्रति रागभाव और अमनोज्ञ के प्रति द्वेषभाव न करे। जब मन से भी विषयों के प्रति विचार करने का निषेध किया है, तब फलितार्थ यह निकलता है कि इन्द्रियों से विषयों में प्रवृत्त होना तो दूर रहा। ___गहणं-गाथा २२ और २३ में गहणं (ग्रहण) शब्द तीन बार आया है। प्रशंगवश गाथा २२ में 'ग्रहण' शब्द का अर्थ-'ग्राह्यविषय' होता है, तथा २३ वीं गाथा में प्रथम 'ग्रहण' का अर्थ है-ग्राहक और द्वितीय ग्रहण का अर्थ है—ग्राह्यविषय । रूप अपराधी नहीं-रूप को देख कर व्यक्ति ही राग या द्वेष करता है। इसमें यदि रूप का ही अपराध होता, तब तो व्यक्ति को रागद्वेषजनित कर्मबन्ध और उससे होने वाला जन्ममरणादि दुःख प्राप्त नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति झटपट मक्त हो जाता। अत: व्यक्ति ही राग-द्वेष के प्रति उत्तरदायी है। दुक्खस्स संपीलं—(१) दुःखजनित पीड़ा-बाधा को अथवा—(२) दुःख के सम्पिण्ड-संघातसमूह को५ __ अत्तगुरू किलिट्टे-अपने ही प्रयोजन को महत्ता—प्रधानता देने वाला, एवं क्लिष्ट अर्थात्रागद्वेषादि से पीडित। रूप में रागी-द्वेषी-रूप में आसक्त या द्वेषग्रस्त मनुष्य रूपवान् वस्तु को प्राप्त करने और कुरूप वस्तु को दूर करने हेतु अनेक जीवों की हिंसा करता है, उन्हें विविध प्रकार से पीडा पहुँचाता है, झूठ बोलता है, अपहरण-चोरी करता है, ठगी करता है, स्त्री के रूप में आसक्त होकर अब्रह्मचर्यसेवन करता है, ममत्वपूर्वक संग्रह करता है, किन्तु फिर भी अतृप्त रहता है। उसके उपार्जन, संरक्षण, उपभोग, व्यय एवं वियोग आदि में दुःखी होता है, इतना सब कुछ पाप करने पर भी वह न यहाँ सुखी होता है, न परलोक में। १. "समाधिः चित्तैकाग्र्यं, स च रागद्वेषाभाव एवेति, ....ततस्तत्कामो रागद्वेषोद्धरणाभिलाषी.....'"-बृहद्वृत्ति, पत्र ६२८ .........अपेर्गम्यमानत्वात् भावमपि, प्रस्तावादिन्द्रियाणि प्रवर्त्तयितुम्। किं पुनस्तत् प्रवर्त्तनमित्यपि शब्दार्थः। ......अत्रापीन्द्रियाणि प्रवर्त्तयितुम् । अपि शब्दार्थश्च प्राग्वत्। -बृहवृत्ति, पत्र ६२८ ३. ........अनेन रूपचक्षुषोग्राह्याहकभाव उक्तः। -बृहद्वृत्ति, पत्र ६२८ ......यदि चक्षु रागद्वेषकारणं, न कश्चिद् वीतरागः स्यादत आह—'समो य जो तेसुस वीयरागो।'-वही, पत्र ६२९ ५. दु:खस्य सम्पिण्डं-संघातं, यद्वा—समिति भृशं, पीडा-दुःखकृता बाधा सम्पीडा। -बृहवृत्ति, पत्र ६२९ ६. आत्मार्थगुरु:-स्वप्रयोजननिष्ठः क्लिष्टः रागबाधितः।-वही, पत्र ६२९ x
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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