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उत्तराध्ययनसूत्र
(त्रस और स्थवर) जीवों की हिंसा करता है, तथा वह मूढ नाना प्रकार ( के उपायों) से उन्हें (त्रसस्थावर जीवों को) परिताप देता है; और अपने ही प्रयोजन को महत्त्व देने वाला क्लिष्ट परिणामी ( रागबाधित) वह (व्यक्ति उन जीवों को) पीड़ा पहुँचाता है।
२८. रूवाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । ar विओगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥
[२८] (मनोज्ञ) रूप के प्रति अनुपात (अनुराग) और परिग्रह (ममत्व) के कारण, (मनोज्ञ रूप के) उत्पादन (उपार्जन) में, संरक्षण में, सन्नियोग (स्वपरप्रयोजनवश उसका सम्यक् उपयोग करने) में, (उसके) व्यय में, तथा वियोग में सुख कहाँ ? (इतना ही नहीं, उसके उपभोगकाल में भी तृप्ति नहीं मिलती।
२९. रूवे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि ।
अतुट्ठदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥
[२९] रूप में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त (अत्यन्त आसक्त) व्यक्ति सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। वह असन्तोष के दोष से दुःखी एवं लोभ से आविल ( कलुषित या व्याकुल) व्यक्ति दूसरे की अदत्त (नहीं दी हुई ) वस्तु ग्रहण करता (चुराता है।
३०. तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । माया - मुसं वड्ड लोभदोसा तत्थाऽवि दुक्खा न विमुच्चई से ॥
[३०] जो तृष्णा से अभिभूत है, रूप और परिग्रह में अतृप्त वह दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । परन्तु इतने पर भी वह दुःख से विमुक्त नहीं होता ।
३१. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥
[३१] झूठ बोलने से पहले और उसके पश्चात् तथा (झूठ बोलने के समय में भी मनुष्य दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप होता है । इस प्रकार रूप से अतृप्त होकर वह अदत्त ग्रहण (चोरी) करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है।
३२.
रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? | तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥
[३२] इस प्रकार रूप में आसक्त मनुष्य को कदापि किंचित् भी सुख कैसे प्राप्त होगा? जिसको (पाने के) के लिए मनुष्य दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी वह क्लेश और दुःख ही उठाता है। ३३. एमेव रूवम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तोय चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥
[३३] इसी प्रकार रूप के प्रति द्वेष को प्राप्त मनुष्य भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेषयुक्त चित्त से (वह) जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। 1