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________________ बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों में रागद्वेष से दूर रहे २१. जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न या मन्त्रेसु मणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ [२१] समाधि की भावना वाला तपस्वी श्रमण, जो इन्द्रियों के (शब्दरूपादि) मनोज्ञ विषय ह, उनमें कदापि राग (भाव) न करे; तथा (इन्द्रियों ) अमनोज्ञ विषयों में मन (से) भी द्वेषभाव न करे । २२. चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु । दोस अमन्त्रमा समो य जो तेसु य वीयरागो ॥ [२२] चक्षु का ग्राह्यविषय रूप है। जो रूप राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो रूप द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। इन दोनों (मनोज्ञ - अमनोज्ञ रूपों) में जो सम (न रागी, न द्वेषी) रहता है, वह वीतराग है। २३. रूवस्स चक्खुं गहणं वयन्ति चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ । [२३] चक्षु को रूप का ग्रहण (ग्राहक) कहते हैं, रूप को चक्षु का ग्राह्य विषय कहते हैं । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं, और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं । २४. रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ ५४५ [२४] जो (मनोज्ञ) रूपों में तीव्र गृद्धि (आसक्ति) रखता है, वह रागातुर मनुष्य अकाल में वैसे ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे प्रकाश-लोलुप पतंग ( प्रकाश के रूप में) रागातुर (आसक्त ) होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। २५. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि रूवं अवरज्झई से ॥ [२५] (इसी प्रकार) जो ( अमनोज्ञरूप के प्रति) द्वेष करता है, वह अपने दुर्दान्त (अत्यन्त प्रचण्ड) द्वेष के कारण उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। इसमे रूप का कोई अपराध - दोष नहीं है । २६. एगन्तरत्ते रुइरंसि रूवे अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ [२६] जो रुचिर (सुन्दर) रूप में एकान्त रक्त (आसक्त) होता है और अतादृश रूप (कुरूप ) प्रति द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख के समूह को प्राप्त होता है । परन्तु वीतराग मुनि उस (रूप) में लिप्त नहीं होता । २७. रूवाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ गरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्टे ॥ [२७] मनोज्ञ रूप की आशा (लालसा) का अनुसरण करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के चराचर
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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