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उत्तराध्ययनसूत्र समझो महासागर पार कर लिया। इसलिए विविक्तवास पर अधिक भार दिया गया है।
निष्कर्ष -जिस तपस्वी साधु का आवास और आसन विविक्त है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, और जो अल्पभोजी है, उसे सहसा रागादिशत्रु परास्त नहीं कर सकते।२ कामभोग : दुःखों के हेतु
१९. कामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स।
जंकाइयं माणसियं च किंचि तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो॥ [२९] समग्र लोक के, यहाँ तक कि देवों के भी जो कुछ शारीरिक और मनसिक दुःख हैं, वे सब कामासक्ति से ही पैदा होते हैं। वीतराग आत्मा ही उन दु:खों का अन्त कर पाते हैं।
२०. जहा य किंपागफला मणोरमा रसेण वण्णेण य भुजमाणा।
ते खुड्डए जीविए पच्चमाणा एओवमा कामगुणा विवागे॥ [२०] जैसे किम्पाकफल रस और रूपरंग की दृष्टि से (देखने और) खाने में मनोरम लगते हैं; किन्तु परिणाम (परिपाक) में वे सोपक्रम जीवन का अन्त कर देते हैं, कामगुण भी विपाक (अन्तिम परिणाम) में ऐसे ही (विनाशकारी) होते हैं।
विवेचन—कामभोग परम्परा से दुःख के कारण कामभोग बाहर से सुखकारक लगते हैं, तथा देवों को वे अधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं, इसलिए साधारण लोग यह समझते हैं कि देव अधिक सुखी हैं, किन्तु कामभोगों को अपनाते ही राग और द्वेष तथा मोह अवश्यम्भावी हैं। जहाँ ये तीनों शत्रु होते हैं, वहाँ इहलोक में शारीरिक-मानसिक दुःख होते ही हैं, तथा इनके कारण अशुभकर्मों का बन्ध होने से नरकादिदुर्गतियों में जन्ममरण-परम्परा का दीर्घकालीनदुःख भी भोगना पड़ता है। ये कामभोग सारे संसार को अपने लपेटे में लिये हुए हैं। इन सब दुःखों का अन्त तभी हो सकता है, जब व्यक्ति कामासक्ति से दूर रहे, वीतरागता को अपनाए। इसीलिए कहा गया है-"तस्संऽतगं गच्छइ वीयरागो।"३
कामभोगों का स्वरूप और सेवन का कटुपरिणाम–२० वीं गाथा में कामभोगों की किम्पाकफल से तुलना करते हुए उनके घातक परिणाम बता कर साधकों को उनसे बचने का परामर्श दिया है। फलितार्थ यह है कि यदि एक बार भी साधक कामभोगों के चक्कर में फंस गया तो फिर दीर्घकाल तक जन्ममरणजन्य दुःखों को भोगना पड़ेगा।
खुड्डए : दो अर्थ-(१) क्षुद्र जीवन अथवा खुन्दति—विनाश कर देता है। १. बहवृत्ति, पत्र ६२७ का सारांश २. बृहवृत्ति, पत्र ६२७ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२७ : "कायिकं दुःखं-रोगादि, मानसिकं च इष्टवियोगजन्यं।" ४. "........यथा किम्पाकफलान्युपभुज्यमानानि मनोरमानि, विपाकावस्थायां तु सोपक्रमायुषां मरणहेतुतयाऽतिदारुणानि; एवं कामगुणा अपि उपभुज्यमाना मनोरमाः, विपाकावस्थायां तु नरकादिदुर्गतिदुःखदायितयाऽतिदारुणानि एवं......।"
-बृहवृत्ति, पत्र ६२७ ५. वही, पत्र ६२७ : क्षुद्रकं—क्षोदयितुं विनाशयितुं शक्यते इति क्षुद्रं-क्षुद्रकं-सोपक्रममित्यर्थः । जीवियं खुन्दति पच्चमाणं
जीवितं-आयुः खुन्दति-क्षोदयति-विनाशयतीति यावत्।"